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________________ २२६ नियमसार अनुशीलन नहीं जानती । उसीप्रकार ज्ञान- ज्ञेय संबंधी विकल्प के अभाव के कारण यह आत्मा तो मात्र आत्मा में स्थित रहता है, आत्मा को जानता नहीं है । शिष्य के उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे प्राथमिक शिष्य ! क्या यह आत्मा अग्नि के समान अचेतन है ? अधिक क्या कहें ? यदि उस आत्मा को ज्ञान नहीं जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति अर्थक्रियाकारी' सिद्ध नहीं होगा; इसलिए वह ज्ञान, आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। यह बात अर्थात् ज्ञान और आत्मा की सर्वथा भिन्नता स्वभाववादियों को इष्ट (सम्मत) नहीं है । अत: यही सत्य है कि ज्ञान आत्मा को जानता है।" आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि जिसप्रकार अग्नि स्वयं को नहीं जानती; परन्तु परपदार्थों को प्रकाशित करती है; उसीप्रकार ज्ञान आत्मा से भिन्न वस्तु है; अतः ज्ञान आत्मा को नहीं जानता । २ गुण यहाँ गुण गुणी की अभेदता की बात है। आत्मा चैतन्य भरा हुआ है और पुण्य-पाप से रहित ज्ञानस्वभावी है। जिसप्रकार यदि कोई व्यक्ति कुल्हाड़ी हाथ में न ले तो लकड़ी काटने की क्रिया नहीं हो सकती; उसीप्रकार ज्ञान आत्मा से भिन्न हो तो वह जानने की क्रिया नहीं कर सकता। देवदत्त कुल्हाड़ी द्वारा काट सकता है या नहीं यहाँ यह सिद्ध नहीं करना है; परन्तु जिसप्रकार कुल्हाड़ी और देवदत्त भिन्न-भिन्न हैं; उसी प्रकार ज्ञान और आत्मा भिन्न नहीं हैं। यहाँ तो कहते हैं कि जिसप्रकार मनुष्य कुल्हाड़ी पकड़े तो उसके द्वारा काटने की क्रिया होती है; कुल्हाड़ी देवदत्त से भिन्न हो तो काटने की क्रिया नहीं होती। उसीप्रकार आत्मा ज्ञान का पिण्ड है। ज्ञान आत्मा को जानने का काम न करे तो कुल्हाड़ी १. प्रयोजनभूत क्रिया करने में समर्थ २. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४२३ ३. वही, पृष्ठ १४२५ 114 गाथा १७० : शुद्धोपयोगाधिकार २२७ की तरह आत्मा और ज्ञान भिन्न सिद्ध होते हैं। जिससे गुण - गुणी की एकता सिद्ध नहीं होती और स्वभाववादियों को गुण-गुणी की सर्वथा भिन्नता मान्य नहीं है। अतः यह निर्णय करना चाहिए कि ज्ञान आत्मा को जानता है। जिसप्रकार अपने घर में रुपया-पैसा हों; पर वे व्यापार में काम न आवें तो उन्हें पूँजी नहीं कहा जाता; उसीप्रकार ज्ञान आत्मा की पूँजी है। वह अपने को न जाने तो वह आत्मा पूँजी रहित सिद्ध होता है, अचेतन कहलाता है। इससे आत्मा अचेतन नहीं होता; परन्तु अपनी मान्यता में जड़ हो जाता है अर्थात् ऐसे जीव को धर्म की प्राप्ति नहीं होती । " इस गाथा और उसकी टीका में युक्ति के आधार से यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा ज्ञानस्वभावी है; अतः वह स्वयं को जानता है । प्राथमिक शिष्य का कहना यह है कि जिसप्रकार अग्नि अपने उष्णतारूप स्वभाव में अवस्थित तो रहती है, पर स्वयं को जानती नहीं है; उसीप्रकार यह आत्मा भी अपने ज्ञानस्वभाव में अवस्थित तो रहता है, पर स्वयं को जानता है। शिष्य को समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि अरे भाई ! आत्मा अग्नि के समान अचेतन नहीं है, आत्मा तो चेतन पदार्थ है। अतः यह अग्नि का उदाहरण घटित नहीं होता । यहाँ तो कहते हैं कि जिसप्रकार कुल्हाड़ी रहित देवदत्त लकड़ी को काटने में समर्थ नहीं होता; क्योंकि वह कुल्हाड़ी से भिन्न है; उसीप्रकार स्वयं को जानने में असमर्थ आत्मा भी ज्ञान से भिन्न सिद्ध होगा। यह तो आप जानते ही हैं कि ज्ञान और आत्मा की सर्वथा भिन्नता स्याद्वादी जैनियों को स्वीकृत नहीं है। अतः यही सत्य है कि स्वभाव में अवस्थित आत्मा आत्मा को जानता है, ज्ञान आत्मा को जानता है। इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा गुणभद्रस्वामी द्वारा भी कहा गया है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार हैह्र १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४२५
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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