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________________ २२२ नियमसार अनुशीलन ज्ञान में नहीं है। ऐसी स्वसामर्थ्य ज्ञानी की पर्याय में प्रगट हुई है। निश्चय से सम्यग्ज्ञानी केवली को नहीं जानते । यदि वे निश्चय से केवली को जानें तो केवली का आत्मा और उनका आत्मा एकमेक हो जावेगा। केवली का ज्ञान ज्ञानी की आत्मा में होता है, यह निश्चय है; परन्तु वे ज्ञानी केवली को जानते हैं - ऐसा कहना व्यवहार है; क्योंकि केवली पर हैं। कोई कहता है कि केवली भगवान तो शुद्ध हैं; उन्हें पर क्यों कहा है? उनसे कहते हैं कि इस आत्मा से केवली भगवान भिन्न हैं; क्योंकि केवली के कारण आत्मा में ज्ञान नहीं होता; परन्तु उन्हें अपने कारण पर का ज्ञान होता है - ऐसा कहना व्यवहार है। भाई! यह बात अत्यन्त शान्तचित्त से सुनना चाहिए। केवली लोक और अलोक को व्यवहार से जानते हैं; परन्तु आत्मा को व्यवहार से नहीं जानते । आत्मा, आत्मा को नहीं जानता है - यह बात नहीं है। परन्तु आत्मा आत्मा को व्यवहार से नहीं जानता है। - यह बात है।" १६६वीं गाथा में यह कहा था कि केवली भगवान निश्चयनय से आत्मा को जानते हैं, पर को नहीं ह्र यदि कोई व्यक्ति निश्चयनय की मुख्यता से ऐसा कथन करता है तो उसमें कोई दोष नहीं है। अब इस गाथा में ठीक उससे विरुद्ध कहा जा रहा है कि यदि कोई व्यक्ति व्यवहारनय की मुख्यता से यह कहता है कि व्यवहारनय से केवली भगवान मात्र पर को जानते हैं, लोकालोक को जानते हैं, आत्मा को नहीं तो उनका यह कथन भी पूर्णत: निर्दोष है। यद्यपि निश्चय और व्यवहारनय की मुख्यता से किये दोनों कथन अपनी-अपनी दृष्टि से पूर्णतः सत्य हैं; तथापि प्रमाण की दृष्टि से केवली भगवान स्व और पर दोनों को एक साथ एक समय में देखते गाथा १६९ : शुद्धोपयोगाधिकार २२३ जानते हैं ह्र यह कथन पूर्णतः सत्य है। जैनदर्शन की कथनपद्धति नहीं जानने से उक्त कथनों में अज्ञानीजनों को विरोध भासित होता है; पर स्यावाद शैली के विशेषज्ञों को इसमें कोई विरोध भासित नहीं होता। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा स्वामी समन्तभद्र द्वारा भी कहा गया है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्न (अपरवक्त्र) स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरंच जगत्प्रतिक्षणम् । इति जिन सकलज्ञलांछनं वचनमिदं वदतांवरस्य ते ।।८१।।' (हरिगीत) उत्पादव्ययधुवयुत जगत यह वचन हे वदताम्बरः। सर्वज्ञता का चिह्न है हे सर्वदर्शि जिनेश्वरः ।।८१|| हे वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ मनिसुव्रतनाथ भगवान ! 'जंगम और स्थावर यह चराचर जगत प्रतिक्षण उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणवाला हैं' ह्र ऐसा यह आपका वचन आपकी सर्वज्ञता का चिह्न है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं । "हे भगवन्! वास्तव में आप ही श्रेष्ठ हैं। हे नाथ! आप सर्वज्ञ हैं। कोई कहे आपने कैसे जाना कि भगवान सर्वज्ञ हैं, तो उससे कहते हैं कि भूत पर्याय का व्यय और नवीन पर्याय का उत्पाद और वस्तु अपेक्षा ध्रौव्य - इसप्रकार द्रव्य प्रतिसमय उत्पादव्ययध्रौव्यरूप त्रयात्मक है तथा एक-एक गुण में भी उत्पादव्ययध्रुवपना है। इसप्रकार सम्पूर्ण जगत उत्पादव्ययध्रुवलक्षणवाला है और एक समय में सम्पूर्ण है। एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों आ जाते हैं। जिसे इसका पता मिला, वह सर्वज्ञ है। हे भगवान! आपकी वाणी में आता है कि एक समय में वस्तु परिपूर्ण है और वस्तु त्रिकाल स्वतंत्र है। जब ऐसी सम्पूर्ण पदार्थ प्रकाशिका वाणी भी अन्य के नहीं होती तो फिर सर्वज्ञता की बात ही १. बृहत्स्वयंभूस्तोत्र : भगवान मुनिसुव्रतनाथ की स्तुति, छन्द ११४ 112 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४१८ २. वही, पृष्ठ १४१९-१४२०
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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