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________________ २१६ नियमसार अनुशीलन सर्वज्ञदेव परमगुरु हैं और गणधरादि मुनिराज अपरगुरु हैं। इन्द्र, नरेन्द्र, वासुदेव, बलदेव आदि भगवान के चरणों में झुकते हैं; अतः भगवान से बड़ा कोई नहीं है। अनंत सामर्थ्य के धारक परमगुरु सर्वज्ञदेव के आंतरिक और बाह्य वैभव की जैसी भव्यता है, वैसी भव्यता अन्य किसी की नहीं होती। शरीरादि की भव्यता वास्तव में भव्यता नहीं है क्योंकि उसके होने से सुख नहीं है और न होने से दुःख नहीं है। परन्तु अनुकूलता और प्रतिकूलता में समताभाव रखना सच्चा धर्म और सुख है।" तीर्थंकर भगवान जिनेन्द्रदेव की महिमा के सूचक इस छन्द में यही कहा गया है कि हे जिनेन्द्र भगवान आप तीन लोक में रहनेवाले सभी भव्य आत्माओं के गुरु हो, अनन्त सुख के शाश्वत धाम हो और लोकालोक में रहनेवाले सभी चेतन-अचेतन पदार्थों को भलीभाँति जानते हो। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४०८-१४०९ परमागम आगम का ही अंश है, जिसे अध्यात्म भी कहते हैं। अध्यात्म में रंग, राग और भेद से भी भिन्न परमशुद्धनिश्चयनय व दृष्टि के विषयभूत एवं ध्यान के ध्येयरूप, परमपारिणामिकभावस्वरूप त्रैकालिक व अभेदस्वरूप निजशुद्धात्मा को ही जीव कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सभी भावों को अनात्मा, अजीव, पुद्गल आदि नामों से कह दिया जाता है। इसका एकमात्र प्रयोजन दृष्टि को पर, पर्याय व भेद से भी हटाकर निज शुद्धात्मतत्त्व पर लाना है; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और पूर्णता निजशुद्धात्मतत्त्व के आश्रय से ही होती है। अध्यात्मरूप परमागम का समस्त कथन इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर होता है। परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१०३ नियमसार गाथा १६८ विगत गाथा में केवलज्ञान के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। अब इस गाथा में यह कहते हैं कि केवलदर्शन के अभाव में केवलज्ञान संभव नहीं है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं । जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ।।१६८।। (हरिगीत) विविध गुण पर्याय युत वस्तु न जाने जीव जो। परोक्षदृष्टि जीव वे जिनवर कहें इस लोक में ||१६८|| अनेक प्रकार के गुणों और पर्यायों से सहित पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को जो भलीभाँति नहीं देखता; उसे परोक्ष दर्शन कहते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ ऐसा कहा है कि केवलदर्शन (प्रत्यक्षदर्शन) के अभाव में सर्वज्ञपना संभव नहीं। पूर्वसूत्र अर्थात् १६७वीं गाथा में कहे गये समस्त गुणों और पर्यायों सहित मूर्तादि द्रव्यों को जो नहीं देखता; अर्थात् मूर्त द्रव्य के मूर्त गुण, अचेतन द्रव्य, अचेतन गुण, अमूर्त द्रव्य के अमूर्त गुण, चेतन द्रव्य के चेतन गुण; छह प्रकार की हानि-वृद्धिरूप सूक्ष्म, परमागम के अनुसार स्वीकार करने योग्य अर्थ पर्यायें जो कि सभी छह द्रव्यों में सामान्यरूप से रहती हैं, पाँच प्रकार की संसारी जीवों की नर-नारकादि व्यंजनपर्यायें; पुद्गलों की स्थूल-स्थूल आदि स्कंध पर्यायें और धर्मादि चार द्रव्यों की शुद्धपर्यायें ह्र इन गुण और पर्यायों से सहित द्रव्यसमूह को जो नहीं देखता; वह भले ही सर्वज्ञता के अभिमान से दग्ध हो; तथापि उसे संसारियों के समान परोक्ष दृष्टि ही है।" 109
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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