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________________ नियमसार अनुशीलन स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायरूप विषयों संबंधी प्रकाश्य-प्रकाशकादि विकल्पों से अति दूर वर्तता हुआ, स्वस्वरूप संचेतन लक्षण प्रकाश द्वारा सर्वथा अन्तर्मुख होने के कारण, निरन्तर अखण्ड, अद्वैत, चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहता है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र २०६ "यहाँ कोई प्रश्न करता है कि दर्शन और ज्ञान दोनों का काम स्वप्रकाशकपना कहने से तो दोनों गुण एक हो जायेंगे ? नहीं; दोनों गुण भिन्न-भिन्न हैं और दोनों के कार्य भी भिन्न-भिन्न हैं, दोनों का विषय भी भिन्न है। दर्शन का विषय सामान्य है और ज्ञान का विषय विशेष है। दर्शन का विषय अभेद है और ज्ञान का विषय भेद है। दोनों का स्वप्रकाशकपना कहा है; इसलिए दोनों एक नहीं हो जाते। उनकी अपनी-अपनी विशेषता कायम रहती है। १. कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जगत में कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता; परन्तु जो वर्तमान सामान्य को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जानते हैं, वे सर्वज्ञ हैं। उनकी यह मान्यता गलत है; क्योंकि वे अल्पज्ञ को सर्वज्ञ मानते हैं। २. तथा कुछ लोग कहते हैं कि केवली भगवान लोकालोक को व्यवहार से जानते हैं; अतः पर को जानते ही नहीं हैं, उनकी ऐसी मान्यता गलत है; क्योंकि वास्तव में केवली पर में तन्मय नहीं होते; अतः व्यवहार कहा है; परन्तु उनका लोकालोक को जानना तो यथार्थ है। ३. तथा कुछ लोग केवलज्ञान और केवलदर्शन का होना क्रमशः मानते हैं; यह भी गलत है; क्योंकि उनके दोनों उपयोग एक साथ होते हैं । २" १६४ व १६५वीं गाथा में ज्ञान, दर्शन और आत्मा को समानरूप से परप्रकाशक एवं स्वप्रकाशक बताया गया है। इससे ऐसा लगता है २. वही, पृष्ठ १३९६ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३९५ 104 गाथा १६५ : शुद्धोपयोगाधिकार २०७ कि जैसे तीनों का एक ही काम है, पर ऐसा नहीं है; क्योंकि ज्ञान स्व और पर को जाननेरूप प्रकाशित करता है, दर्शन देखनेरूप प्रकाशित करता है और आत्मा देखने-जाननेरूप प्रकाशित करता है। इसीप्रकार दर्शन सामान्यग्राही है, ज्ञान विशेषग्राही है और आत्मा सामान्य विशेषात्मक पदार्थग्राही है। यहाँ यह बात विशेष ध्यान रखने योग्य है कि इन गाथाओं में निश्चय-व्यवहारनय की संधिपूर्वक स्वपरप्रकाशी ज्ञान और आत्मा के माध्यम से दर्शन को स्वपरप्रकाशक सिद्ध किया गया है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान और आत्मा के स्वपरप्रकाशनपने को आधार बनाकर दर्शन को स्वपरप्रकाशी सिद्ध किया गया है ।। १६५॥ इसके बाद टीकाकार एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ( मंदाक्रांता ) आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या दृष्टि: साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैष: । एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निविकल्पे महिम्नि ।। २८१ । । हरिगीत ) परमार्थ से यह निजप्रकाशक ज्ञान ही है आतमा । बाह्य आलम्बन रहित जो दृष्टि उसमय आतमा । स्वरस के विस्तार से परिपूर्ण पुण्य-पुराण यह । निर्विकल्पक महिम एकाकार नित निज में रहे ।। २८१|| निश्चय से स्वप्रकाशक ज्ञान आत्मा है। जिसने बाह्य आलम्बन का नाश किया है ह्र ऐसा स्वप्रकाशक दर्शन भी आत्मा है । निजरस के विस्तार पूर्ण होने के कारण जो पवित्र है तथा पुरातन है; ऐसा आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमा में निश्चितरूप से वास करता है। इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि निश्चयनय से स्वप्रकाशक (स्वयं को जाननेवाला) ज्ञान और स्वप्रकाशक (स्वयं को देखनेवाला) दर्शन ही आत्मा हैं । निश्चयनय से स्व को देखने-जाननेवाला यह ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा पुरातन है, पवित्र है और अपने निर्विकल्पक महिमा में सदा मग्न है ।। २८१ ।।
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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