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________________ शुद्धभाव अधिकार ९७ अनादिनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकारणपरमात्मा ह्यात्मा । अत्यासन्नभव्यजीवानामेवंभूतं निजपरमात्मानमन्तरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति । (मालिनी) जयति समयसारः सर्वतत्त्वैकसारः सकलविलयदूरः प्रास्तदुर्वारमारः। दुरिततरुकुठारः शुद्धबोधावतारः सुखजलनिधिपूरः क्लेशवाराशिपारः ।।५४।। णो खलु सहावठाणा णो माणवमाणभावठाणा वा। णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिस्सठाणा वा ।।३९।। गुणपर्यायों से रहित, अनादि-अनन्त अमूर्त और अतीन्द्रिय स्वभाववाला शुद्ध सहज परमपारिणामिक भाव है स्वभाव जिसका, ऐसा कारणपरमात्मा ही वास्तविक आत्मा है। अत्यासन्न भव्यजीवों को उक्त निज परमात्मा (आत्मा) से अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का आशय यह है कि परमपारिणामिकभावरूप स्वयं के आत्मा से भिन्न जीवादि बाह्य तत्त्व परपदार्थरूप होने से अपनापन स्थापित करने योग्य नहीं है; अत: हेय हैं और उनसे भिन्न कर्मोपाधिजनित विभावभावों से निरपेक्ष परमपारिणामिकभावरूप अपना आत्मा अपनापन स्थापित करने योग्य है; अत: उपादेय है। वस्तुत: बात यह है कि यहाँ परमभावग्राहीशुद्धद्रव्यार्थिकनय अथवा परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत परमपारिणामिकभावरूप कारणपरमात्मा को ही आत्मा कहा गया है; क्योंकि उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट होते हैं। उक्त आत्मा में ही अपनापन होने का नाम निश्चय सम्यग्दर्शन, उसे ही निजरूप जानने का नाम निश्चय सम्यग्ज्ञान और उसमें ही जम जाने-रम जाने का नाम निश्चय सम्यक्चारित्र है। अत: एकमात्र वही उपादेय है तथा उससे अन्य जो कुछ भी है, वह सभी हेय है। यद्यपि उक्त कथन सभी भव्यजीवों के लिए है; तथापि यहाँ मुनिराजों की मुख्यता से बात की है। यही कारण है कि यहाँ मुनिराजों का स्वरूप भी सहजभाव से स्पष्ट हो गया है। यहाँ मुनिराजों को सहजवैरागी, परद्रव्यों से पराङ्गमुख, जितेन्द्रिय, अपरिग्रही, जिनयोगीश्वर और स्वद्रव्य में रत कहा गया है।।३८।।। टीका के अन्त में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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