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________________ नियमसार शुद्धभाव अधिकार (गाथा ३८ से गाथा ५५ तक) अथेदानीं शुद्धभावाधिकार उच्यते। जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा। कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो ।।३८।। जीवादिबहिस्तत्त्वं हेयमुपादेयमात्मनः आत्मा। कर्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायैर्व्यतिरिक्तः ।।३८।। हेयोपादेयतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । जीवादिसप्ततत्त्वजातं परद्रव्यत्वान्न ह्युपादेयम् । आत्मन: सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे: परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरूपादेयो ह्यात्मा। औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वा द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनितविभाव गुणपर्यायरहितः, जीवाधिकार और अजीवाधिकार के निरूपण के उपरान्त अब यहाँ शुद्धभावाधिकार आरंभ करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) जीवादिजो बहितत्त्व हैं, वे हेय हैं कर्मोपधिज। पर्याय से निरपेक्ष आतमराम ही आदेय है।।३८|| जीवादि बाह्य तत्त्व हेय हैं और कर्मोपाधिजनित गुण और पर्यायों से भिन्न अपना आत्मा उपादेय है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह हेय और उपादेय तत्त्व के स्वरूप का कथन है । परद्रव्यरूप होने से जीवादि सात तत्त्वों का समूह वस्तुत: उपादेय नहीं है। सहज वैराग्यरूपी महल का शिखामणि (चूड़ामणि), परद्रव्यों से पराङ्गमुख, पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित, देह को छोड़कर अन्य सभी प्रकार के परिग्रहों से रहित, परमजिनयोगीश्वर और स्वद्रव्य में तीक्ष्णबुद्धि के धारक आत्मा (मुनिराजों) को वास्तव में एक अपना आत्मा ही उपादेय है। पारिणामिक भावों से भिन्न औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ह्न इन चार भावों से अगोचर होने से द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप उपाधिजनित विभाव
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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