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________________ अजीव अधिकार ( मालिनी ) इति विरचितमुच्चैर्द्रव्यषट्कस्य भास्वद् विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत् । तदिह जिनमुनीनां दत्तचित्तप्रमोदं । भवति भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः ।। ५० ।। एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकाय त्ति । णिद्दिट्ठा जिणसमये काया हु बहुप्पदेसत्तं ।। ३४ ।। एतानि षड्द्रव्याणि च कालं मुक्त्वास्तिकाया इति । निर्दिष्टा जिनसमये काया: खलु बहुप्रदेशत्वम् ।। ३४।। टीका के उपरान्त टीकाकार मुनिराज एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( त्रिभंगी ) जय भव भय भंजन, मुनि मन रंजन, भव्यजनों को हितकारी । यह षट्द्रव्यों का, विशद विवेचन, सबको हो मंगलकारी ॥ ५० ॥ ८९ भव्यजीवों को अमृत के समान और मुनिराजों के चित्त को प्रमुदित करनेवाला यह छह द्रव्यों का अत्यन्त रमणीय स्पष्ट विवेचन भव्यजीवों को सदा संसार परिभ्रमण से मुक्त होने का कारण बने । 1 यह छन्द आशीर्वचनरूप छन्द है । इसमें भावना व्यक्त की गई है कि भव्यजीवों के लिए अमृत समान और मुनिराजों के चित्त को प्रमुदित करनेवाला षट्द्रव्यों का यह अत्यन्त रमणीक विवेचन भव्यजीवों को संसार परिभ्रमण से मुक्त होने का कारण बने, सभी को कल्याणकारी हो ॥५०॥ विगत गाथाओं में षट्द्रव्यों की चर्चा करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय कहे गये हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) बहुप्रदेशीपना ही है काय एवं काल बिन । जीवादि अस्तिकाय हैं ह्र इस भांति जिनवर के वचन ॥ ३४ ॥ जैनागम के अनुसार इन छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्ति हैं । बहुप्रदेशीपने को काय कहते हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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