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________________ अजीव अधिकार तथाहि ह्र ( अनुष्टुभ् ) वर्तनाहेतुरेष: स्यात् कुम्भकृच्चक्रमेव तत्। पंचानामस्तिकायानां नान्यथा वर्तना भवेत् ।। ४८ ।। प्रतीतिगोचराः सर्वे जीवपुद्गलराशयः । धर्माधर्मनभः कालाः सिद्धाः सिद्धान्तपद्धते: ।।४९ ।। और मार्गप्रकाश नामक ग्रंथ में भी कहा है ( दोहा ) ८७ सब द्रव्यों में परिणमन काल बिना न होय । और परिणमन के बिना कोई वस्तु न होय || १७|| काल के अभाव में पदार्थों का परिणमन नहीं होगा और परिणमन के न होने पर द्रव्य और पर्यायें भी नहीं रहेगी ह्न इसप्रकार सर्वाभाव का प्रसंग उपस्थित होगा । इसके बाद टीकाकार मुनिराज कलश के रूप में दो छन्द स्वयं लिखते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( दोहा ) घट बनने में निमित्त है ज्यों कुम्हार का चक्र । द्रव्यों के परिणमन में त्यों निमित्त यह द्रव्य ॥ इसके बिन न कोई भी द्रव्य परिणमित होय । इसकारण ही सिद्ध रे इसकी सत्ता होय ॥४८॥ जिन आगम आधार से धर्माधर्माकाश । जिय पुद्गल अर काल का होता है आभास || ४९|| जिसप्रकार घड़ा बनाने में कुम्हार का चक्र निमित्त है; उसीप्रकार यह परमार्थ काल पाँचों अस्तिकायों की वर्तना में निमित्त है। इसके बिना पाँचों अस्तिकायों में वर्तना नहीं हो सकती । सिद्धान्तपद्धति अर्थात् आगमानुसार स्थापित जीवराशि, पुद्गलराशि, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी द्रव्यों का अस्तित्व प्रतीतिगोचर है अर्थात् प्रतीति में आता है। विविध शास्त्रों के उक्त सभी कथनों में यही बताया गया है कि कालाणु निश्चयकाल द्रव्य है। वे कालाणु द्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक स्थित हैं; इसप्रकार कुल कालद्रव्य जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही हैं। तात्पर्य यह है कि कालद्रव्यों की संख्या असंख्य (लोकप्रमाण) है। समय कालद्रव्य की पर्यायें हैं। वे समय जीव राशि व पुद्गल राशि से भी अनन्तगुणे अनंत हैं। समय काल का वह सबसे छोटा अंश है कि जिसका विभाजन संभव नहीं है । । ४८-४९||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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