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________________ ४७६ नियमसार तथा हित (शार्दूलविक्रीडित) लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभोस्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम् । स्तोतुं के भुवनत्रयेऽपि मनुजा: शक्ताः सुरा वा पुनः जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्तिर्जिनेऽत्युत्सुका ।।३०७।। णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणामसुदं। णच्चा जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ।।१८७।। निजभावनानिमित्तं मया कृतं नियमसारनामश्रुतम्। ज्ञात्वा जिनोपदेशं पूर्वापरदोषनिर्मुक्तम् ।।१८७।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) सम्पूर्ण पृथ्वी को कंपाया शंखध्वनि से आपने | सम्पूर्ण लोकालोक है प्रभु निकेतन तन आपका ।। हे योगि! किस नर देव में क्षमता करे जो स्तवन | अती उत्सुक भक्ति से मैं कर रहा हूँ स्तवन ||३०७।। जिन प्रभ का ज्ञानरूपी शरीर लोकालोक का निकेतन है: जिन्होंने शंख की ध्वनि से सारी पृथ्वी को कंपा दिया था; उन नेमिनाथ तीर्थेश्वर का स्तवन करने में तीन लोक में कौन मनुष्य या देव समर्थ है? फिर भी उनका स्तवन करने का एकमात्र कारण उनके प्रति अति उत्सुक भक्ति ही है ह ऐसा मैं जानता हूँ। उक्त छन्द में नेमिनाथ भगवान की स्तुति की गई है। कहा गया है कि जिन्होंने गृहस्थावस्था में शंखध्वनि से सबको कंपा दिया था और सर्वज्ञ दशा में जिनके ज्ञान में लोकालोक समाहित हो गये थे; उन नेमिनाथ की स्तुति कौन कर सकता है; पर मैं जो कर रहा हूँ, वह तो एकमात्र उनके प्रति अगाध भक्ति का ही परिणाम है।।३०७।। नियमसार की इस अन्तिम गाथा में यह कहा गया है कि मैंने यह नियमसार नामक ग्रंथ स्वयं की अध्यात्म भावना के पोषण के लिए लिखा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) जान जिनवरदेव के निर्दोष डस उपदेश को। निज भावना के निमित मैंने किया हैइस ग्रंथको।।१८७||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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