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________________ ४६४ नियमसार णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिद्दा य। ण य तिण्हा व छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥१८०।। नापि इन्द्रियाः उपसर्गा: नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च। न च तृष्णा नैव क्षुधा तत्रैव च भवति निर्वाणम् ।।१८०।। परमनिर्वाणयोग्यपरमतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । अखंडैकप्रदेशज्ञानस्वरूपत्वात् स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियव्यापारः देवमानवतिर्यगचेतनोपसर्गाश्च न भवन्ति, क्षायिकज्ञानयथाख्यातचारित्रमयत्वान्न दर्शनचारित्रभेदविभिन्नमोहनीयद्वितयमपि, बाह्यप्रपंचविमुखत्वान्न विस्मयः, नित्योन्मीलितशुद्धज्ञानस्वरूपत्वान्न निद्रा, असातावेदनीयकर्मनिर्मूलनान्न क्षुधा तृषा च । तत्र परमब्रह्मणि नित्यं ब्रह्म भवतीति । (हरिगीत) इन्द्रियाँ उपसर्ग एवं मोह विस्मय भी नहीं। निद्रा तृषा अर क्षुधा बाधा है नहीं निर्वाण में ||१८०|| जहाँ इन्द्रियाँ नहीं हैं, उपसर्ग नहीं हैं, मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, निद्रा नहीं है, तृषा नहीं है, क्षुधा नहीं है; वही निर्वाण है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यह परम निर्वाण के योग्य परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है। उक्त परमतत्त्व अखण्ड, एकप्रदेशी, ज्ञानस्वरूप होने से उसे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण नामक पाँच इन्द्रियों का व्यापार नहीं है; देव, मानव, तिर्यंच और अचेतन कृत उपसर्ग नहीं है; क्षायिक ज्ञान और यथाख्यात चारित्रमय होने के कारण दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का मोहनीय नहीं है; बाह्यप्रपंच से विमुख होने के कारण विस्मय नहीं है, नित्य प्रगटरूप शुद्धज्ञानस्वरूप होने से उसे निद्रा नहीं है; असाता वेदनीय कर्म को निर्मूल कर देने से उसे क्षुधा और तृषा नहीं है; उस परमात्मतत्त्व में सदा ब्रह्म (निर्वाण) है।" इस गाथा और उसकी टीका में भी विगत गाथा और उसकी टीका के समान गाथा में तो मात्र इतना ही कहा है कि उक्त परमतत्त्व में इन्द्रियाँ नहीं हैं, उपसर्ग नहीं है, मोह नहीं है, विस्मय, निद्रा, क्षुधा-तृषा नहीं है; अत: वही निर्वाण है; किन्तु टीका में उक्त विशेषणों को सहेतुक सिद्ध किया गया है ।।१८०|| इसके बाद तथा अमृताशीति में भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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