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________________ शुद्धोपयोग अधिकार ४६३ ( अनुष्टुभ् ) आत्माराधनया हीन: सापराध इति स्मृतः। अहमात्मानमानन्दमंदिरं नौमि नित्यशः ।।२९९।। स्वामीजी उक्त सभी विशेषणों को उक्त परमतत्त्व के साथ-साथ निर्वाण पर भी घटित करते गये हैं।।१७९|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज दो छन्द लिखते हैं; जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू (वीर) भव सुख-दुख अर जनम-मरण की पीड़ा नहीं रंच जिनके। शत इन्द्रों से वंदित निर्मल अदभुत चरण कमल जिनके|| उन निर्बाध परम आतम को काम कामना को तजकर। नमन करूँ स्तवन करूँ मैं सम्यक् भाव भाव भाकर||२९८|| इस लोक में जिसे सदा ही भव-भव के सुख-दुख नहीं हैं, बाधा नहीं है, जन्म-मरण व पीड़ा नहीं है; उस कारणपरमात्मा एवं कार्य-परमात्मा को कामसुख से विमुख वर्तता हआ मुक्तिसुख की प्राप्ति हेतु नित्य नमन करता हँ, उनका स्तवन करता हैं और भलीभाँति भावना भाता हूँ। इस छन्द में सांसारिक सुख-दुःख से रहित, जन्म-मरण की पीड़ा से रहित, सर्वप्रकार बाधा से रहित, कारणपरमात्मा एवं कार्यपरमात्मा की कामसुख से विमुख होकर वन्दना की गई है, उनका स्तवन करने की भावना भाई गई है।।२९८|| दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (दोहा) आत्मसाधना से रहित है अपराधी जीव । न| परम आनन्दघर आतमराम सदीव ||२९९।। आत्मा की आराधना से रहित आत्मा को अपराधी माना गया है; इसलिए मैं आनन्द के मन्दिर आत्मा को नित्य नमन करता हूँ।। इस छन्द में भी आत्मा की आराधना से रहित जीवों को अपराधी बताते हुए ज्ञानानन्दमयी भगवान आत्मा और अरहंत-सिद्धरूप कार्य-परमात्मा को नमस्कार किया गया है।।२९९|| विगत गाथा में जिस परमतत्त्व को निर्वाण बताया गया है। इस गाथा में भी उस निर्वाण के योग्य परमतत्त्व का स्वरूप समझाया जा रहा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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