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________________ शुद्धोपयोग अधिकार ४५१ (मंदाक्रांता) एको देवस्त्रिभुवनगुरुनष्टकर्माष्टकार्ध सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम् । आरातीये भगवति जिने नैव बंधो न मोक्षः तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च ।।२९० ।। न ह्येतस्मिन् भगवति जिने धर्मकर्मप्रपंचो रागाभावाछदतुलमहिमा राजते वीतरागः । एषः श्रीमान स्वसुखनिरतः सिद्धिसीमन्तिनीशो ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात् ।।२९१।। अभाव होने से उन्हें द्रव्यबंध और भावबंध कैसे हो सकते हैं? तात्पर्य यह है कि न तो मोहराग-द्वेषरूप भावबंध होता है और न ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का बंध होता है। उक्त छन्द में भी यही कहा गया है कि प्रकट महिमावंत, समस्त लोक के एकमात्र नाथ केवली भगवान के इच्छापूर्वक वचनों का अभाव है। मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण उन केवली भगवान को न तो द्रव्यबंध होता है और न भावबंध होता है ।।२८९।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) अरे जिनके ज्ञान में सब अर्थ हों त्रयलोक के। त्रयलोकगुरु चतुकर्मनाशक देव हैं त्रयलोकके। न बंध है न मोक्ष है न मूर्छा न चेतना । वे नित्य निज सामान्य में ही पूर्णत: लवलीन हैं।।२९०|| जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश किया है, जो तीन लोक के गुरु हैं, समस्त लोक और उसमें स्थित पदार्थ समूह जिनके ज्ञान में स्थित हैं; वे जिनेन्द्र भगवान एक ही देव हैं, अन्य कोई नहीं। उन्हें न बंध है, न मोक्ष है, उनमें न तो कोई मूर्छा है, न चेतना; क्योंकि उनके द्रव्य सामान्य का आश्रय है। उक्त छन्द में यह कहा गया है कि घातिकर्म के नाशक, समस्त पदार्थों के ज्ञायक, तीन लोक के गुरु हे जिनेन्द्र भगवान ! आप ही एकमात्र देव हैं। ऐसे देव को न तो बंध है, न मोक्ष है; उनमें न कोई मूर्छा है और न चेतना है; क्योंकि उनके तो द्रव्यसामान्य का ही आश्रय है।।२९०|| तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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