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________________ ४५० नियमसार पूर्वकं वचनं न वक्ति स्वमन:परिणामपूर्वकमिति यावत् । कुत:? अमनस्का: केवलिन: इति वचनात् । अत: कारणाज्जीवस्य मन:परिणतिपूर्वकं वचनं बंधकारणमित्यर्थः, मन:परिणामपूर्वकं वचनं केवलिनो न भवति, ईहापूर्वं वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविंदविनिर्गतो दिव्यध्वनिरनीहात्मकः समस्तजनहृदयाह्लादकारणं; ततः सम्यरज्ञानिनो बंधाभाव इति । (मंदाक्रांता) ईहापूर्वं वचनरचनारूपमत्रास्ति नैव तस्मादेष: प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता । अस्मिन् बंध:कथमिव भवेद्रव्यभावात्मकोऽयं मोहाभावान्न खलु निखिलं रागरोषादिजालम् ।।२८९।। केवलज्ञानी जीव कभी भी स्वबुद्धिपूर्वक अर्थात् स्वमनपरिणामपूर्वक वचन नहीं बोलते; क्योंकि केवली भगवान अमनस्क (मन रहित) होते हैं ह्न ऐसा शास्त्र का वचन है। इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि जीवों के मनपरिणतिपूर्वक होनेवाले वचन बंध का कारण होते हैं ह्न ऐसा अर्थ है । केवली भगवान के मनपरिणतिपूर्वक वचन नहीं होते। इसीप्रकार इच्छा सहित जीव को इच्छापूर्वक होनेवाले वचन भी बंध के कारण होते हैं। समस्त लोग हृदयकमल के आह्लाद के कारणभूत, केवली भगवान के मुखारबिन्द से निकली हुई दिव्यध्वनि तो इच्छा रहित है; अत: केवलज्ञानी को बंध नहीं होता।" इन दोनों गाथाओं और उनकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि परिणामपूर्वक और इच्छापूर्वक वचन बंध के कारण होते हैं। केवलज्ञानी की दिव्यध्वनि परिणाम रहित और इच्छा रहित होने के कारण उन्हें बंध नहीं होता ।।१७३-१७४।। इन गाथाओं की टीका लिखने के उपरान्त टीकाकार मुनिराज तीन छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत ) ईहापूर्वक वचनरचनारूप न बस इसलिए। प्रकट महिमावंत जिन सब लोक के भरतार हैं। निर्मोहता से उन्हें पूरण राग-द्वेषाभाव है। द्रव्य एवं भावमय कुछ बंध होगा किस तरह? ||२८९|| केवली भगवान के इच्छापूर्वक वचनों का अभाव होने से वे प्रगट महिमावंत हैं, समस्त लोक के एकमात्र नाथ हैं। मोह के अभाव के कारण समस्त राग-द्वेष के जाल का
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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