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________________ जीव अधिकार ___अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशर्मामृतेन अप्रतिहतनिरावरणपरमचिच्छक्तिरूपेण सदान्तर्मुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्वव्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्पश्रद्धानेन अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम् अनाथमुक्तिसुन्दरीनाथम् आत्मानं भावयेत्। इत्यनेनोपन्यासेन संसारव्रततिमूललवित्रेण ब्रह्मोपदेशः कृत इति । इस सहजचिद्विलासरूप, सदा सहज परमवीतरागसुखामृत, अप्रतिहतनिरावरण परमचित्शक्तिरूप, सदा अन्तर्मुख स्वस्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहजपरमचारित्र और त्रिकाल अविच्छिन्न होने से; सदा निकट परमचैतन्य की श्रद्धा से एवं स्वभाव अनन्त चतुष्टय से सनाथ एवं अनाथमुक्तिसुन्दरी के नाथ आत्मा को निरन्तर भाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि भाने योग्य, अनुभव करने योग्य तो एकमात्र सहजज्ञानविलासरूप से स्वभाव अनंतचतुष्टययुक्त आत्मा ही है। इसप्रकार संसाररूपी लता के मूल को छेदने के लिए हंसियारूप इस उपन्यास (कथन) से ब्रह्मोपदेश किया।" १०वी, ११वीं और १२वीं गाथाओं की तात्पर्यवृत्ति टीका का गहराई से अध्ययन करने पर एक बात यह भासित होती है कि कारणस्वभावज्ञान दो प्रकार का है। एक तो वह निष्क्रिय तत्त्व, जिसमें अपनापन स्थापित करने का नाम सम्यग्दर्शन है, जिसको निजरूप जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है और जिसमें जमने-रमने या जिसका ध्यान करने का नाम सम्यक्चारित्र है। ___ दूसरा वह, जिसमें उसे जानने की शक्ति है। यह प्रगटरूप नहीं है, शक्तिरूप ही है; क्योंकि प्रगटदशारूप तो कार्यस्वभावज्ञान है। इसीप्रकार की बात तीसरी गाथा में कारणनियम के संदर्भ में भी की गई है। यह दूसरे प्रकार का कारणस्वभावज्ञान स्वरूपप्रत्यक्ष है और कार्यस्वभावज्ञान अर्थात् केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है। दूसरे प्रकार के कारणस्वभावज्ञान को सहजज्ञान भी कहते हैं। केवलज्ञान को छोड़कर शेष चार विभावज्ञानोपयोग है। उनमें अवधि ज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकलप्रत्यक्ष अर्थात् एकदेशप्रत्यक्ष हैं और मतिज्ञान व श्रुतज्ञान निश्चय से तो परोक्ष ही हैं; पर व्यवहार से उन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं ।।११-१२।। ___ इन गाथाओं के उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तात्पर्यवृत्ति टीका में पाँच छन्द लिखते हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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