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________________ नियमसार सहजपरमचिच्छक्तिनिजकारणसमयसारस्वरूपाणि च युगपत् परिच्छेत्तुं तथाविधमेव । इति शुद्धज्ञानस्वरूपमुक्तम् । इदानीं शुद्धाशुद्धज्ञानस्वरूपभेदस्त्वयमुच्यते। अनेकविकल्पसनाथं मतिज्ञानम् उपलब्धिभावनोपयोगाच्च अवग्रहादिभेदाश्च बहुबहुविधादिभेदाद्वा । लब्धिभावनाभेदाच्छुतज्ञानं द्विविधम् । देशसर्वपरमभेदादवधिज्ञानं त्रिविधम् । ऋजुविपुलमतिविकल्पान्मन:पर्ययज्ञानं च द्विविधम् । परमभावस्थितस्य सम्यग्दृष्टरेतत्संज्ञानचतुष्कं भवति ।मतिश्रुतावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टिं परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभङ्गज्ञानानीति नामान्तराणि प्रपेदिरे। अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम् । केवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षम् । 'रूपिष्ववधेः' इति वचनादवधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम् । तदनन्तभागवस्त्वंशग्राहकत्वान्मन:पर्ययज्ञानंच विकल प्रत्यक्षम् । मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थत: परोक्षं, व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति। किं च उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव । अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति। परमचित्शक्तिरूप निजकारणसमयसार के स्वरूपों को युगपद् जानने में समर्थ है । इसप्रकार यह शुद्धज्ञान का स्वरूप कहा गया। अब शुद्धाशुद्धज्ञान का स्वरूप और भेद कहे जाते हैं। उपलब्धि, भावना और उपयोग के भेद से तथा अवग्रहादि के भेद से अथवा बहु, बहुविध आदि के भेद से मतिज्ञान अनेक भेदवाला है। लब्धि और भावना के भेद से श्रुतज्ञान दो प्रकार का है। देशावधि, सर्वावधि और परमावधि के भेद से अवधिज्ञान तीन प्रकार का है। ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन:पर्ययज्ञान दो प्रकार का है। परमभाव में स्थित सम्यग्दृष्टियों को ये चार सम्यग्ज्ञान होते हैं। मिथ्यादृष्टियों को होनेवाले मति, श्रुत और अवधिज्ञानों को क्रमश: कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि कहा जाता है। उपर्युक्त ज्ञानों में सहजज्ञान, शुद्ध अन्त:तत्त्वरूप परमतत्त्व में व्यापक होने से स्वरूपप्रत्यक्ष है। केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है। रूपिष्ववधेः ह्न अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ है' ह्न ऐसा आगम का वचन होने से अवधिज्ञान विकलप्रत्यक्ष (एकदेशप्रत्यक्ष) है। उसके अनंतवें भाग वस्तु के अंश का ग्राहक होने से मन:पर्ययज्ञान भी विकलप्रत्यक्ष (एकदेशप्रत्यक्ष) है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परमार्थ से परोक्ष हैं और व्यवहार से प्रत्यक्ष हैं। दूसरी बात यह है कि उक्त ज्ञानों में साक्षात् मोक्ष का मूल कारण तो निज परमतत्त्व में स्थित एकमात्र सहजज्ञान ही है। पारिणामिकभावरूप स्वभाव के कारण वह सहजज्ञान भव्यों का परमस्वभाव होने से एकमात्र उपादेय है, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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