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________________ परमभक्ति अधिकार मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि । जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं । ।१३५ ।। मोक्षगतपुरुषाणां गुणभेदं ज्ञात्वा तेषामपि । यः करोति परमभक्तिं व्यवहारनयेन परिकथितम् । । १३५ ।। व्यवहारनयप्रधानसिद्धभक्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । ये पुराणपुरुषाः समस्तकर्मक्षयोपायहेतुइसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसी भाव का पोषक एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) संसारभयहर ज्ञानदर्शनचरण की जो संयमी । श्रावक करें भव अन्तकारक अतुल भक्ती निरन्तर ॥ वे काम क्रोधादिक अखिल अघ मुक्त मानस भक्तगण । ही लोक में जिनभक्त सहृदय और सच्चे भक्त हैं ||२२०॥ ३४५ जो श्रावक या संयमी जीव संसार भय को हरण करनेवाले इस सम्यग्दर्शन की, शुद्धज्ञान और शुद्धचारित्र की ; संसार का छेद कर देनेवाली अतुल भक्ति निरन्तर करता है; कामक्रोधादि सम्पूर्ण दुष्ट पापसमूह से मुक्त चित्तवाला वह श्रावक अथवा संयमी जीव निरन्तर भक्त है, भक्त ही है । उक्त कलश में मात्र यही कहा गया है कि शुद्ध रत्नत्रयधारी श्रावक या संयमी ह्न दोनों ही सदा निश्चय भक्ति से संपन्न हैं। भले ही वे आपको बाह्य में भक्ति करते दिखाई न दें; तथापि वे अपनी शुद्ध रत्नत्रय परिणति से निरन्तर भक्त ही हैं ॥ २२० ॥ १३४वीं गाथा में निश्चयभक्ति का स्वरूप कहा। अब इस १३५वीं गाथा में व्यवहारभक्ति का स्वरूप समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) मुक्तिगत नरश्रेष्ठ की भक्ति करें गुणभेद से । वह परमभक्ति कही है जिनसूत्र में व्यवहार से ||१३५|| जो जीव मोक्षगत पुरुषों का गुणभेद जानकर, उनकी भी परमभक्ति करता है; उस जीव को व्यवहारनय से परमभक्ति कही है। उक्त गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यह व्यवहारनयप्रधान सिद्धभक्ति के स्वरूप का कथन है । जो पुराणपुरुष सम्पूर्ण कर्मों के क्षय के उपायभूत कारणपरमात्मा की अभेद - अनुपचार रत्नत्रय परिणति से
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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