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________________ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार ३१५ (पृथ्वी ) निजात्मगुणसंपदं मम हृदि स्फुरन्तीमिमां समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा । जगत्रितय-वैभव-प्रलयहेतु-दुःकर्मणां प्रभुत्वगुणशक्तित: खलु हतोस्मि हा संसृतौ ।।१९८।। है। वह परमतत्त्व सहज परमदृष्टि से परिपूर्ण है और वृथा उत्पन्न भव-भव के परिताप से तथा कल्पनाओं से मुक्त है। कल्पनामात्र रमणीय तुच्छ सांसारिक सुख को मैं आत्मशक्ति से भलीप्रकार छोड़ता हूँ तथा स्फुरायमान स्वयं के विलास से सहज परमसुखवंत चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मतत्त्व का मैं सर्वदा अनुभव करता हूँ। उक्त छन्दों में आत्मा के शाश्वत स्वरूप का उद्घाटन करते हुए विषय-कषायों से विरक्त हो आत्माराधना करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। कहा गया है कि यह भगवान आत्मा सहजतेज का पुंज, मोहान्धकार से मुक्त, सहजप्रकाशनमात्र परिपूर्ण परमतत्त्व है। यह परमात्मतत्त्व मैं स्वयं ही हूँ। अत: अब मैं कल्पनामात्र रमणीक संसारसुखों को तिलांजलि देकर परमसुखमय आत्मा की आराधना में संलग्न होता हूँ॥१९६-१९७।। चौथे व पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) समाधि की है विषय जो मेरे हृदय में स्फुरित। स्वातम गुणों की संपदा को एक क्षण जाना नहीं।। त्रैलोक्य वैभव विनाशक दुष्कर्म की गुणशक्ति के। निमित्त से रे हाय मैं संसार में मारा गया ||१९८|| (दोहा) सांसारिक विषवृक्षफल दुख के कारण जान | आत्मा से उत्पन्न सुख भोगूं मैं भगवान ||१९९।। मेरे हृदय में स्फुरायमान, समाधि की विषयभूत अपने आत्मा के गुणों की संपदा को मैंने पहले एक क्षण को भी नहीं जाना । तीन लोक के वैभव को नाश करने में निमित्तरूप दुष्ट कर्मों की प्रभुत्वगुणशक्ति से मैं संसार में मारा गया हूँ, हैरान हो गया हूँ। संसार में उत्पन्न होनेवाले विषवृक्ष के समस्त फल को दुःख का कारण जानकर मैं चैतन्यात्मक आत्मा में उत्पन्न विशुद्ध सुख का अनुभव करता हूँ। उक्त छन्दों में अधिकार का समापन करते हुए अपने आत्मा को नहीं जानने से आज
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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