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________________ ३१४ ( मालिनी ) जयति सहजतेज:पुंजनिर्मग्नभास्वत्सहजपरमतत्त्वं मुक्तमोहान्धकारम् । सहजपरमदृष्ट्या निष्ठितन्मोघजातं ( ? ) भवभवपरितापै: कल्पनाभिश्च मुक्तम् ।।१९६।। भवभवसुखमल्पं कल्पनामात्ररम्यं तदखिलमपि नित्यं संत्यजाम्यात्मशक्त्या । सहजपरमसौख्यं चिच्चमत्कारमात्रं स्फुटितनिजविलासं सर्वदा चेतयेहम् ।।१९७।। जो स्वात्मनिष्ठापरायण हैं; उन संयमियों को काया से उत्पन्न होनेवाले अति प्रबल कार्यों के त्याग के कारण, वाणी के जल्पसमूह की विरति के कारण और मानसिक विकल्पों की निवृत्ति के कारण तथा निज आत्मा का ध्यान के कारण निश्चय से सतत् कायोत्सर्ग है। नियमसार उक्त छन्द में अत्यन्त सरल शब्दों में यह बात कही गई है कि अपने आत्मा में सलंग्न संयमीजनों के न तो कायासंबंधी अति प्रबल कार्य होते हैं; न वचनसंबंधी अनर्गल प्रलाप होता है और न मन में विकल्पों का अंबार होता है । इसप्रकार मन-वचन-काय संबंधी विकृति के अभाव के कारण और आत्मा के सतत् ध्यान के कारण निश्चयनयाश्रित वीतरागी सन्तों के निरंतर निश्चयकायोत्सर्ग होता है । । १९५ ।। दूसरे व तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) मोहत से मुक्त आतमतेज से अभिषिक्त है। दृष्टि से परिपूर्ण सुखमय सहज आतमतत्त्व है। संसार में परिताप की परिकल्पना से मुक्त है। अरे ज्योतिर्मान निज परमातमा जयवंत है ।। १९६ ॥ संसारसुख अति अल्प केवल कल्पना में रम्य है । मैं छोड़ता हूँ उसे सम्यक् रीति आतमशक्ति से मैं चेतता हूँ सर्वदा चैतन्य के सद्ज्ञान में । स्फुरित हूँ मैं परमसुखमय आतमा के ध्यान में ।। १९७ ।। सहजतेजपुंज में निमग्न, मोहान्धकार से मुक्त, सहज प्रकाशमान परमतत्त्व सदा जयवंत
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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