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________________ शुद्ध निश्चयप्रायश्चित्ताधिकार ( शालिनी ) य: शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा प्रायश्चित्तमत्र चास्त्येव तस्य । निर्धूतांहः संहतिं तं मुनीन्द्रं वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम् ।।१८३।। किंबहुणा भणिण दुवरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ ।। ११७।। किंबहुना भणितेन तु वरतपश्चरणं महर्षीणां सर्वम् । प्रायश्चित्तं जानीानेककर्मणां क्षयहेतुः।।११७।। ३०१ इसके बाद टीकाकार एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) शुद्धात्मा के ज्ञान की संभावना जिस संत में । आत्मरत उस सन्त को तो नित्य प्रायश्चित्त है । धो दिये सब पाप अर निज में रमे जो संत नित । गुणों को प्राप्त करने के लिए || १८३ || इस लोक में जो मुनिराज शुद्धात्मज्ञान की सम्यक् भावना रखते हैं; उन मुनिराज को प्रायश्चित्त है ही । जिन्होंने पापसमूह को धो डाला है, उन मुनिराज को उनमें उपलब्ध गुणों की प्राप्ति हेतु मैं नमस्कार करता हूँ । इस कलश में दो बातें कही गई हैं। प्रथम तो यह कि जो वीतरागी संत शुद्धात्मज्ञान की सम्यक् भावना रखते हैं; उनके प्रायश्चित्त सदा ही है और दूसरी बात यह कि उन जैसे गुण मुझे भी प्राप्त हो जावें ह्न इस भावना से सम्पूर्ण पाप भावों से रहित भावलिंगी सन्तों को मैं नमस्कार करता हूँ।।१८३।। विगत गाथा में ‘आत्मज्ञान एवं आत्मध्यान ही प्रायश्चित्त है' ह्न यह कहने के उपरान्त अब इस गाथा में यह कहते हैं कि मुनियों का तपश्चरण ही प्रायश्चित्त है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) कर्मक्षय का हेतु जो है ऋषिगणों का तपचरण । वह पूर्ण प्रायश्चित्त है इससे अधिक हम क्या कहें ॥११७॥ अधिक कहने से क्या लाभ है ? इतना कहना ही पर्याप्त है कि अनेक कर्मों के क्षय का हेतु जो महर्षियों का तपश्चरण है, उस सभी को प्रायश्चित्त जानो ।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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