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________________ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार २९५ कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए । । ११५।। क्रोधं क्षमया मानं स्वमार्दवेन आर्जवेन मायां च । संतोषेण च लोभं जयति खलु चतुर्विधकषायान् । । ११५ । । चतुष्कषायविजयोपायस्वरूपाख्यानमेतत् । जघन्यमध्यमोत्तमभेदात्क्षमास्तिस्रो भवन्ति । अकारणादप्रियवादिनो मिथ्यादृष्टेरकारणेन मां त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा । अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनवधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा । वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसीभावस्थितिरुत्तमा क्षमा । आभिः क्षमाभिः क्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं मार्दवेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण लोभकषायं चेति । विगत गाथा में कहा गया है कि कामक्रोधादि भावों के क्षय करने संबंधी ज्ञान भावना ही प्रायश्चित्त है और अब इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि वे क्रोधादि कैसे जीते जाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) वे कषायों को जीतते उत्तमक्षमा से क्रोध को । मान माया लोभ जीते मृदु सरल संतोष से ||११५।। क्रोध को क्षमा से, मान को स्वयं के मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संतोष से ह्र चार प्रकार की कषायों को योगीजन इसप्रकार जीतते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह चार कषायों को जीतने के उपाय के स्वरूप का व्याख्यान है । जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से क्षमा तीन प्रकार की होती है। अकारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टियों के द्वारा अकारण ही मुझे तकलीफ पहुँचाने का जो प्रयास हुआ है; वह मेरे पुण्योदय से दूर हुआ है ह्र ऐसा सोचकर क्षमा करना प्रथम (जघन्य ) क्षमा है । अकारण त्रास देनेवाले को मुझे ताड़न करने या मेरा वध (हत्या) करने का जो भाव वर्तता है, वह मेरे सुकृत (पुण्य) से दूर हुआ है ह्र ऐसा सोचकर क्षमा करना द्वितीय (मध्यम) क्षमा है । मेरा वध होने से अमूर्त परमब्रह्मरूप मुझे कुछ भी हानि नहीं होती ह्र ऐसा समझकर परमसमरसीभाव में स्थित रहना उत्तम क्षमा है I इन तीन प्रकारों द्वारा क्रोध को जीतकर, मार्दवभाव द्वारा मान कषाय को, आर्जवभाव से माया कषाय को और परमतत्त्व की प्राप्तिरूप संतोष से लोभ कषाय को योगीजन जीतते हैं।"
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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