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________________ २९४ नियमसार इह हि सकलकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्तम् । क्रोधादिनिखिलमोहरागद्वेषविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावनायां सत्यां निसर्गवृत्त्या प्रायश्चित्तमभिहितम् अथवा परमात्मगुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपसहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति। (शालिनी) प्रायश्चित्तमुक्तमुच्चैर्मुनीनां कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च । किंचस्वस्य ज्ञानसभावना वा सन्तोजानन्त्येदात्मप्रवादे ।।१८१।। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ सम्पूर्ण कर्मों को जड़ से उखाड़ देने में समर्थ निश्चयप्रायश्चित्त का स्वरूप कहा गया है। क्रोधादिक समस्त मोह-राग-द्वेषरूप विभावभावों के क्षय के कारणभूत निजकारणपरमात्मा के स्वभाव की भावना होने पर सहजपरिणति के होने के कारण प्रायश्चित्त कहा गया है अथवा परमात्मा के गुणात्मक शुद्ध अन्त:तत्त्वरूप स्वरूप के सहज ज्ञानादिक सहज गुण का चिन्तवन होना प्रायश्चित्त है।" इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि निज गुणों का चिन्तवन और क्रोधादि विकारी भावों के क्षय, क्षयोपशम और उपशम करने की भावना रखना अथवा क्रोधादि भावों के क्षय, क्षयोपशम उपशमरूप से परिणमित होना ही निश्चय प्रायश्चित्त है।।११४|| इसके बाद टीकाकार मनिराज एक छंद लिखते हैं। जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है तू (रोला) कामक्रोध आदिक जितने भी अन्य भाव हैं। उनके क्षय की अथवा अपने ज्ञानभाव की। प्रबल भावना ही को प्रायश्चित्त कहा है। आत्मप्रवाद पूर्व के ज्ञायक संतगणों ने ||१८१|| सन्तों ने आत्मप्रवाद नामक पूर्व के आधार से ऐसा जाना है और कहा भी है कि मुनिराजों को कामक्रोधादि अन्य भावों के क्षय की अथवा अपने ज्ञान की उग्र संभावना, सम्यक्भावना ही प्रायश्चित्त है। उक्त छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि आत्मप्रवाद नामक पूर्व में समागत प्रायश्चित्त की चर्चा में यह कहा गया है कि काम, क्रोध आदि विकारीभावों के क्षय, क्षयोपशम और उपशम करने की उग्र भावना के साथ-साथ ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा का सम्यक् ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान ही निश्चय प्रायश्चित्त है।।१८१||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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