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________________ जीव अधिकार तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः ह्र ( आर्या ) अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः । । ५ । । ( हरिणी ) ललितललितं शुद्धं निर्वाणकारणकारणं निखिलभविनामेतत्कर्णामृतं जिनसद्वचः । भवपरिभवारण्यज्वालित्विषां प्रशमे जलं प्रतिदिनमहं वन्दे वन्द्यं सदा जिनयोगिभिः ।। १५ ।। इसके बाद टीकाकार 'तथा चोक्तं श्री समन्तभद्रस्वामिभिः ह्न तथा आचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा भी ऐसा ही कहा गया है' ह्न ऐसा कहकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) जो न्यूनता विपरीतता अर अधिकता से रहित है। सन्देह से भी रहित है स्पष्टता से सहित है ।। जो वस्तु जैसी उसे वैसी जानता जो ज्ञान है। जाने जिनागम वे कहें वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥५॥ २९ जो न्यूनतारहित, अधिकतारहित और विपरीततारहित यथातथ्य वस्तुस्वरूप को नि:संदेहरूप से जानता है; उसे आगम के जानकार ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) कहते हैं । रत्नकरण्डश्रावकाचार के उक्त छन्द में सम्यग्ज्ञान का जो स्वरूप स्पष्ट किया गया है; उसमें इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि जो वस्तु जैसी है; उसे न कम, न अधिक और विपरीत ठीक जैसी है, वैसी ही निःसंदेहरूप में जानना ही सम्यग्ज्ञान है | ॥५॥ इसके बाद टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसमें जिनागम (जिनवाणी - शास्त्र) की वन्दना की गई है । छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) मुक्तिमग के मग तथा जो ललित में भी ललित हैं। जो भविजनों के कर्ण-अमृत और अनुपम शुद्ध हैं । भविविजन के उग्र दावानल शमन को नीर हैं। निवचन को जो योगिजन के वंद्य हैं ||१५|| १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ४२
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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