SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमालोचनाधिकार ( अनुष्टुभ् ) अनादिममसंसाररोगस्यागदमुत्तप्तम् । शुभाशुभविनिर्मुक्तशुद्धचैतन्यभावना ।।१६७।। ( मालिनी ) अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा । भवमरणविमुक्तं पंचमुक्तिप्रदं यं तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ।। १६८ ।। (दोहा) अस्थिर पुद्गलवंध तन तज भवमूरत जान | सदा शुद्ध जो ज्ञानतन पाया आतम राम || १६६|| शुध चेतन की भावना रहित शुभाशुभभाव । औषधि है भव रोग की वीतरागमय भाव || १६७॥ २८१ पौद्गलिक स्कंधों से निर्मित यह अस्थिर शरीर भव की मूर्ति है, मूर्तिमान संसार है। इसे छोड़कर मैं ज्ञानशरीरी सदा शुद्ध भगवान आत्मा का आश्रय ग्रहण करता हूँ । शुभाशुभभावों से रहित शुद्धचैतन्य की भावना मेरे अनादि संसार रोग की उत्कृष्ट औषधि है । उक्त छन्दों में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में मात्र यही कहा गया है कि संसार की साक्षात् मूर्ति यह शरीर पौद्गलिक स्कन्धों से बना हुआ है, इसलिए अस्थिर है; इसे छोड़कर मैं ज्ञानशरी सदा शुद्ध भगवान आत्मा की शरण में जाता हूँ; क्योंकि मेरे इस अनादि संसार रोग की एकमात्र अचूक औषधि शुभाशुभभावों से रहित एक शुद्ध चैतन्य भावना ही है ।। १६६-१६७ ।। सातवें, आठवें और नौवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( रोला ) अरे पंचपरिवर्तनवाले भव के कारण । विविध विकल्पोंवाले शुभ अर अशुभ कर्म हैं । अरे जानकर ऐसा जनम-मरण से विरहित । मुक्ति प्रदाता शुद्धतम को नमन करूँ मैं ।। १६८ ।। विविध विकल्पों वाला शुभाशुभ कर्म; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ह्न इन पाँच परिवर्तनोंवाले संसार का मूल कारण है ह्र ऐसा जानकर जन्म-मरण से रहित और पाँच
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy