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________________ २८० नियमसार (वसंततिलका) मुक्तः कदापि न हि याति विभावकायं तद्धेतुभूत-सुकृतासुकृत-प्रणाशात् । तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं __मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि ।।१६५।। (अनुष्टुभ् ) प्रपद्येऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम् । भवमूर्तिमिमां त्यक्त्वा पुद्गलस्कन्धबन्धुराम् ।।१६६।। (रोला) रे विभावतन मुक्त जीव तो कभी न पाते। ___ क्योंकि उन्होंने सुकृत-दुष्कृत नाश किये हैं।। इसीलिए तो सुकृत-दुष्कृत कर्मजाल तज| अरे जा रहा हूँ मुमुक्षुओं के मारग में ||१६५।। घोर संसार में सहज ही होनेवाले भयंकर दुःखों से प्रतिदिन परितप्त होनेवाले इस लोक में मुनिराज समताभाव के प्रसाद से समतारूपी अमृतमयी बर्फ के ढेर जैसी ठंडक अर्थात् शान्ति प्राप्त करते हैं। मुक्तजीव विभावरूप काय (शरीर) को कभी प्राप्त नहीं होते; क्योंकि उन्होंने शरीर संयोग के हेतुभूत सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) का नाश कर दिया है। इसलिए अब मैं सुकृत और दुष्कृत कर्मजाल को छोड़कर एक मुमुक्षुमार्ग में जाता हूँ। उक्त दोनों छन्दों में मात्र यही कहा गया है कि यद्यपि इस अपार घोर संसार में अनन्त जीव आकुलतारूपी भट्टी में निरंतर जल रहे हैं, अनन्त दुःख भोग रहे हैं; तथापि मुनिजन तो समताभाव के प्रसाद से समतारूपी अमृत के बर्फीले गिरि पर विराजमान हैं और अनंत शीतलता का अनुभव कर रहे हैं, सुख-शान्ति में लीन हैं। सभी प्रकार के सुकृत और दुष्कृतों से मुक्त सिद्ध जीव कभी भी विभावभावरूप काया में प्रवेश नहीं करते, इसलिए मैं भी अब सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) के कर्मजाल को छोड़कर मुमुक्षु मार्ग में जाता हूँ। जिस निष्कर्म वीतरागी मार्ग पर मुमुक्षु लोग चलते हैं; मैं भी उसी मार्ग को अंगीकार करता हूँ।।१६४-१६५।। पाँचवें और छठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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