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________________ २६० ( मंदाक्रांता ) प्रत्याख्यानाद्भवति यमिषु प्रस्फुटं शुद्धशुद्धं सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम् । तत्त्वं शीघ्रं कुरु तव मतौ भव्यशार्दूल नित्यं यत्किंभूतं सहजसुखदं शीलमूलं मुनीनाम् । । १४७ ।। ( मालिनी ) जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धेः हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत् । तदपि सहजतेजः प्रास्तमोहान्धकारं स्वरसविसरभास्वद्बोधविस्फूर्तिमात्रम् ।। १४८ ॥ निर्मल गुणवाले सिद्धपुरुषों में ही पाया जाता है। ऐसी स्थिति होने पर भी विद्वज्जन कामबाण से घायल होकर भी, उसी कामवासना की वांछा क्यों करते हैं ? यह बड़े आश्चर्य की बात है ।। १४६ ।। पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है रोला ) अघ वृक्षों की अटवी को वह्नि समान है। ऐसा सत् चारित्र सदा है प्रत्यावान में ।। इसीलिए हे भव्य स्वयं की बुद्धि को तू । नियमसार आत्मतत्त्व में लगा सहज सुख देने वाले || १४७।। जो दुष्ट पापरूपी वृक्षों की घनी अटवी को जलाने के लिए अग्निरूप हैं ह्र ऐसा प्रगट शुद्ध-बुद्ध सत्चारित्र संयमियों को प्रत्याख्यान से होता है; इसलिए हे भव्यशार्दूल तू शीघ्र अपनी बुद्धि में आत्मतत्त्व को धारण कर; क्योंकि वह तत्त्व सहजसुख देनेवाला और मुनिवरों के चारित्र का मूल है। इस छन्द में कहा गया है कि पापरूपी वृक्षों के घने जंगल को जलाने के लिए जो अग्नि के समान है; ऐसा शुद्ध-बुद्ध चारित्र संयमीजनों को प्रत्याख्यान से होता है। इसलिए हे भव्यजीवो ! तुम शीघ्र ही अपनी बुद्धि को आत्मतत्त्व में लगाओ; क्योंकि वह आत्मतत्त्व सहजसुख देनेवाला है और मुनिजनों के चारित्र का मूल है ।। १४७ ।। छठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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