SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ नियमसार (स्वागता) घोरसंसृतिमहार्णवभास्वद्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्रः । तत्त्वत: परमतत्त्वमजस्रं भावयाम्यहमतो जितमोहः ।।१४४।। (मंदाक्रांता) प्रत्याख्यानं भवति सततं शुद्धचारित्रमूर्तेः भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानंदचिन्निष्टबुद्धेः। नास्त्यन्येषामपरसमये योगिनामास्पदानां भूयो भूयो भवति भाविनां संसृतिर्घोररूपा ।।१४५।। 'जो भविष्यकाल के सांसारिक भावों से निवृत्त है, वह मैं हूँ।' इसप्रकार के भावों को, कर्मफल से मुक्त होने के लिए, पूर्ण सुख के निधान निर्मल निजस्वरूप को सभी मुनिराजों को नित्य भाना चाहिए। ___ इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि प्रत्येक मुनिराज को कर्ममल से मुक्त होने के लिए ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा की भावना भानी चाहिए तथा इसप्रकार सोचना चाहिए कि मैं तो वह हूँ, जो भविष्यकाल के सांसारिक भावों से निवृत्त है। चूँकि यहाँ प्रत्याख्यान की चर्चा चल रही है; इसलिए यहाँ भविष्य काल के सांसारिक भावों से निवृत्त होने की बात कही है।।१४३।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला) परमतत्त्व तो अरे भयंकर भव सागर की। नौका है ह यह बात कही है परमेश्वर ने।। इसीलिए तो मैं भाता हूँ परमतत्त्व को। अरे निरन्तर अन्तरतम से भक्तिभाव से ||१४४|| 'यह परमतत्त्व भगवान आत्मा भयंकर संसार सागर की दैदीप्यमान नाव है'ह्न ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। इसलिए मैं मोह को जीतकर निरन्तर परमतत्त्व को तत्त्वत: भाता हूँ। इस कलश में परमतत्त्व की भावना भाने की प्रेरणा दी है; क्योंकि यह परमतत्त्व संसारसागर से पार उतारने के लिए नौका के समान है। जिसप्रकार नाव के सहारे से विशाल समुद्र से भी पार पा सकते हैं; उसीप्रकार परमतत्त्व की भावना से भी संसारसमुद्र का किनारा पाया जा सकता है।।१४४।। तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy