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________________ जीव अधिकार __ तीर्थंकरपरमदेवस्वरूपाख्यानमेतत् । आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयकर्माणि, तेषां निरवशेषेण प्रध्वंसान्निश्शेषदोषरहित: अथवा पूर्वसूत्रोपात्ताष्टादशमहादोषनिर्मूलनान्निःशेषदोषनिर्मुक्त इत्युक्तः । सकलविमलकेवलबोधकेवलदृष्टिपरमवीतरागात्मकानन्दाद्यनेकविभवसमृद्धः । यस्त्वेवंविध: त्रिकालनिरावरणनित्यानंदैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्नकार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन् परमेश्वरः। अस्य भगवत: परमेश्वरस्य विपरीतगुणात्मका: सर्वे देवाभिमानदग्धा अपि संसारिण इत्यर्थः। तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैःह्न तेजो दिट्ठी णाणं इड्डी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिहुवणपहाणदइयं माहप्पंजस्स सो अरिहो ।।३।। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यह तीर्थंकर परमदेव के स्वरूप का कथन है। आत्मगुणों के घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ह्न इन चार घातिया कर्मों का पूर्णत: नाश कर देने के कारण जो सम्पूर्ण दोषों से रहित हैं अथवा पूर्वसूत्र छठवीं गाथा में कहे गये अठारह महादोषों के निर्मूल कर देने के कारण जिन्हें नि:शेषदोष रहित कहा गया है और जो केवलज्ञान, केवलदर्शन एवं परम वीतरागात्मक आनन्दादि विविध वैभव से सम्पन्न हैं; तथा जो त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द, एकस्वरूप, निज-कारणपरमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्यपरमात्मा हैं; वे भगवान ही अरहंत परमेश्वर हैं। इन भगवान अरहंत परमेश्वर से विपरीत गुणोंवाले लोग देवत्व के अभिमान से दग्ध होने पर भी परमात्मा नहीं हैं, संसारी ही हैं ह्र ऐसा गाथा का अर्थ है।" इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में यही कहा गया है कि अठारह दोषों से रहित वीतरागी एवं केवलज्ञानादि वैभव से संयुक्त अर्थात अनंत सखी सर्वज्ञ भगवान ही अरहंत परमात्मा हैं, सच्चे देव हैं। उक्त गुणों से रहित और दोषों से संयुक्त होने पर भी स्वयं देव माननेवाले लोग सच्चे देव नहीं हैं। टीका में एक बात और भी स्पष्ट की गई है कि अरहंत भगवान कार्यपरमात्मा हैं और जिस त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करने से, उसमें लीन होने से आत्मा कार्यपरमात्मा बनता है, उसे कारणपरमात्मा कहते हैं।।७।। इसके बाद तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदैवै: ह्न तथा कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने भी कहा है' ह्न ऐसा कहकर एक गाथा उद्धृत की है। १. आचार्य कुन्दकुन्द : प्रवचनसार, आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में उपलब्ध ७१वीं गाथा
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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