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________________ २४ नियमसार तथा हि ह्न (मालिनी) शतमखशतपूज्य:प्राज्यसद्बोधराज्य: स्मरतिसुरनाथ: प्रास्तदुष्टाघयूथः। पदनतवनमाली भव्यपद्मांशुमाली दिशतु शमनिशं नो नेमिरानन्दभूमिः ।।१३।। णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो । सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ।।७।। निःशेषदोषरहित: केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः। स परमात्मोच्यते तद्विपरीतो न परमात्मा ।।७।। छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) शत इन्द्रों से पूज्य ज्ञान साम्राज्य अधपती। कामजयी लौकान्तिक देवों के अधिनायक|| पाप विनाशक भव्यनीरजों के तुम सूरज। नेमीश्वर सुखभूमि सुक्ख दें भवभयनाशक||१३|| सौ इन्द्रों से पूज्य, सम्यग्ज्ञानरूप विशाल राज्य के अधिपति, कामविजयी लौकान्तिक देवों के नाथ, दृष्ट पाप के नाशक, श्रीकृष्ण द्वारा पूजित, भव्यरूपी कमलों को विकसित करनेवाले सूर्य और आनन्द की भूमिरूप नेमिनाथ भगवान हमें शाश्वत सुख प्रदान करें। उक्त छन्द में भगवान नेमिनाथ की स्तुति की गई है। टीका के बीच में आनेवाले इस स्तुतिपरक छन्द को हम मध्यमंगल के रूप में देख सकते हैं ।।१३।। विगत गाथा में जिन अठारह दोषों की चर्चा की गई है, अब इस गाथा में उक्त दोषों से रहित परमात्मा का स्वरूप समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) सम्पूर्ण दोषों से रहित सर्वज्ञता से सहित जो। बस वे ही हैं परमातमा अन कोई परमातम नहीं।।७|| जो निःशेष अर्थात् अठारह दोषों से रहित और केवलज्ञानादि परम वैभव से संयुक्त है; वह परमात्मा है और उससे विपरीत परमात्मा नहीं है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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