SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार २४९ ___ आत्मगतदोषनिर्मुक्त्युपायकथनमिदम् । भेदविज्ञानिनोऽपि मम परमतपोधनस्य पूर्वसंचितकर्मोदयबलाच्चारित्रमोहोदये सति यत्किंचिदपि दुश्चरित्रं भवति चेत्तत् सर्वं मनोवाक्कायसंशुद्ध्या संत्यजामि । सामायिकशब्देन तावच्चारित्रमुक्तं सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्ध्यभिधानभेदात्रिविधम् । अथवा जघन्यरत्नत्रयमुत्कृष्टं करोमि; नवपदार्थपरद्रव्यश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं रत्नत्रयंसाकारं, तत् स्वस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपस्वभावरत्नत्रयस्वीकारेण निराकारं शुद्धं करोमि इत्यर्थः। __ किं च, भेदोपचारचारित्रम् अभेदोपचारं करोमि, अभेदोपचारम् अभेदानुपचारं करोमि इति त्रिविधं सामायिकमुत्तरोत्तरस्वीकारेण सहजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपसहजनिश्चयचारित्रं, निराकारतत्त्वनिरतत्त्वान्निराकारचारित्रमिति । इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह आत्मगत दोषों से मुक्त होने के उपाय का कथन है । भेदविज्ञानी होने पर भी मुझ तपोधन को पूर्व संचित कर्मों के उदय के बल से चारित्रमोह का उदय होने पर यदि कुछ दुश्चरित्र हआ हो तो उस सभी को मैं मन-वचन-काय की संशुद्धि से छोड़ता हूँ। यहाँ सामायिक शब्द चारित्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और वह चारित्र तीन प्रकार का होता है तू सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापना चारित्र और परिहारविशुद्धि चारित्र। मैं उस चारित्र को निराकार करता हूँ अथवा मैं जघन्यरत्नत्रय को उत्कृष्ट करता हूँ। नव पदार्थरूप परद्रव्य के श्रद्धान-ज्ञान-आचणरूप रत्नत्रय साकार अर्थात् सविकल्प हैं; उसे निजस्वरूप के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप स्वभावरत्नत्रय के स्वीकार द्वारा निराकार अर्थात् शुद्ध करता हूँ। ह्न ऐसा अर्थ है। __ दूसरे प्रकार से कहें तो मैं भेदोचार चारित्र को अभेदोपचार करता हूँ तथा अभेदोपचार चारित्र को अभेदानुपचार करता हूँ। इसप्रकार त्रिविध सामायिक (चारित्र) को उत्तरोत्तर स्वीकृत करने से सहज परमतत्त्व में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चयचारित्र होता है। वह निश्चयचारित्र निराकारतत्त्व में लीन होने से निराकारचारित्र है।" इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मैं शुद्धोपयोगरूप चारित्र में स्थित होता हैं। इससे चारित्र की कमजोरी के कारण जो अस्थिरतारूप दोष रहा है, वह भी समाप्त हो जावेगा। यह तो सुनिश्चित ही है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव और मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव श्रद्धान के दोष से तो मुक्त ही थे; क्योंकि वे सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा मुनिराज थे। चारित्र में भी तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धि विद्यमान थी; किन्तु संज्वलन कषाय के उदय के कारण जो थोड़ी-बहुत अस्थिरता रह गई थी, वे उसका भी प्रत्याख्यान
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy