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________________ २४८ नियमसार जं किंचि मे दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे। सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं ।।१०३।। यत्किंचिन्मे दुश्चरित्रं सर्वं त्रिविधेन विसृजामि । सामायिकं तु त्रिविधं करोमि सर्वं निराकारम् ।।१०३।। परमात्मा ही मैं हूँ। अत: इन शरीरादिक संयोगों और रागादिभावरूप संयोगी भावों से भिन्न कारणपरमात्मारूप अपने आत्मा की आराधना में ही रत रहता हूँ।।१०२।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (वीर) सदा शुद्ध शाश्वत परमातम मेरा तत्त्व अनेरा है। सहज परम चिद चिन्तामणि चैतन्य गणों का बसेरा है। अरे कथंचित् एक दिव्य निज दर्शन-ज्ञान भरेला है। अन्य भाव जो बहु प्रकार के उनमें कोई न मेरा है।।१३८|| मेरा परमात्मा शाश्वत है, कथंचित् एक है, सहज परम चैतन्य-चिन्तामणि है, सदा शुद्ध है और अनंत निज दिव्य ज्ञान-दर्शन से समृद्ध है। यदि मेरा आत्मा ऐसा है तो फिर मुझे बहत प्रकार के बाहाभावों से क्या लाभ है, क्या प्रयोजन है, उनसे कौनसा फल प्राप्त होनेवाला है ? तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा से भिन्न पदार्थों से कोई लाभ नहीं है। इस कलश में भी यही कहा गया है कि जब मेरा भगवान आत्मा ही चैतन्यचिन्तामणि है, सभी चिन्ताओं को समाप्त करनेवाला है तो फिर मैं बाह्य संयोगों में से कुछ चाहने की भावना क्यों करूँ? मेरा यह भगवान आत्मा न केवल चैतन्य चिन्तामणि है, अपितु शाश्वत है, सदा रहनेवाला है; इन संयोग का वियोग होना तो सुनिश्चित ही है, इनसे मुझे क्या लेना-देना है ? मेरा भगवान आत्मा सदा शुद्ध है, उसमें अशुद्धि का प्रवेश ही नहीं है। अशुद्धि तो संयोगजन्य है, संयोगभावरूप है; उससे भी मेरा कोई संबंध नहीं है।।१३८|| अब आगामी गाथा में अपने दोषों के निराकरण की बात करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत) मैं त्रिविध मन-वच-काय से सब दुश्चरित को छोड़ता। अर त्रिविध चारित्र से अब मैं स्वयं को जोड़ता ||१०३।। मेरा जो कछ भी दश्चरित्र है: उस सभी को मैं मन-वचन-काय से छोडता हैं और त्रिविध सामायिक अर्थात् चारित्र को निराकार करता हूँ, निर्विकल्प करता हूँ।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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