SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३६ नियमसार ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे ।।९९।। ममत्वं परिवर्जयामि निर्ममत्वमुपस्थितः। आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषं च विसृजामि ।।१९।। अत्र सकलविभावसंन्यासविधिः प्रोक्तः । कमनीयकामिनीकांचनप्रभृतिसमस्तपरद्रव्यगुणपर्यायेषु ममकारं संत्यजामि । परमोपेक्षालक्षणलक्षिते निर्ममकारात्मनि आत्मनि स्थित्वा ह्यात्मानमवलम्ब्य च संसृतिपुरंघ्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणतिं परिहरामि। उक्त छन्द के माध्यम से टीकाकार मुनिराज अपने शिष्यों को, अपने पाठकों को अथवा हम सभी को प्रेरणा दे रहे हैं कि मुक्ति को प्राप्त करने का उपाय एकमात्र ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा का अनुभव करना है, ध्यान करना है। इसलिए मेरे (टीकाकार मुनिराज के) कहने का सार यह है कि तुम भी मेरे समान अपनी बुद्धि को इस चैतन्यचमत्काररूप भगवान आत्मा में लगाओ। इससे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा।।१३३।। अब आगामी गाथा में सभी विभावभावों से संन्यास की विधि समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र । (हरिगीत ) छोड़कर ममभाव निर्ममभाव में मैं थिर रह बस स्वयं का अवलम्ब ले अवशेष सब मैं परिहरूँ||९९|| मैं ममत्व को छोड़ता हूँ और निर्ममत्व में स्थित रहता हूँ। मेरा अवलम्बन तो एकमात्र आत्मा है, इसलिए शेष सभी को विसर्जित करता हूँ. छोडता हैं। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ सकल विभाव के संन्यास की विधि कही है। मैं सुन्दर कामिनी और कंचन (सोना) आदि सभी परद्रव्य, उनके गुण और पर्यायों के प्रति ममत्व को छोड़ता हूँ। परमोपेक्षा लक्षण से लक्षित निर्ममत्वात्मक आत्मा में स्थित होकर तथा आत्मा का अवलंबन लेकर संसार रूपी स्त्री के संयोग से उत्पन्न सुख-दुःखादि अनेक विभावरूप परिणति को छोड़ता हूँ।" उक्त गाथा और उसकी टीका में सम्पूर्ण विभावभावों से संन्यास लेने की विधि बताई गई है। सारा जगत कंचन-कामिनी आदि परद्रव्यों में ही उलझा हुआ है। यहाँ ज्ञानी संकल्प करता है कि मैं इन कंचन-कामिनी आदि सभी परद्रव्यों से, उनके गुणों और पर्यायों से ममता तोडता हूँ और निर्ममत्व होकर अपने आत्मा में ही अपनापन स्थापित करके उसी में समा जाने को तैयार हूँ।।९९।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy