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________________ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार २३५ कर्मभिः प्रकृतिप्रदेशबंधौ स्याताम्; चतुर्भिः कषायैः स्थित्युनभागबन्धौ स्तः; एभिश्चतुर्भिबंधैर्निर्मुक्तः सदानिरुपाधिस्वरूपोह्यात्मासोहमिति सम्यग्ज्ञानिना निरंतरं भावना कर्तव्येति । (मंदाक्रांता) प्रेक्षावद्भिः सहजपरमानन्दचिद्रूपमेकं संग्राह्य तैर्निरुपममिदं मुक्तिसाम्राज्यमूलम् । तस्मादुच्चस्त्वमपि च सखे मद्वचःसारमस्मिन् श्रुत्वा शीघ्रं कुरु तव मतिं चिच्चमत्कारमात्रे ।।१३३।। कषायों से स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं । इन चार बंधों से रहित सदा निरुपधिस्वभावी आत्मा ही मैं हूँ ह ऐसी भावना सम्यग्ज्ञानी जीव को सदा भाना चाहिए।" इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि बंध चार प्रकार का होता है। उनमें प्रकृति और प्रदेश बंध तो योग से और स्थिति तथा अनुभाग बंध कषाय से होते हैं। यहाँ कषाय शब्द में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद भी शामिल समझने चाहिए; क्योंकि महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में बंध के कारण पाँच बताये हैं; जो इसप्रकार हैं ह मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें से योग प्रकृति-प्रदेश बंध का कारण है, शेष चार स्थिति-अनुभाग बंध के कारण हैं। अत: यहाँ कषाय शब्द से कषायान्त का भाव लेना चाहिए। कषाय हैं अन्त में जिसके उसे कषायान्त कहते हैं। इस न्याय से कषाय में मिथ्यात्वादि भी शामिल हैं। इस गाथा में यह भावना भाई गई है कि मैं चारों प्रकार के बंधों से रहित हूँ। ह्न ऐसी भावना वाले के ही सच्चा प्रत्याख्यान होता है ।।९८।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) जो मूल शिव साम्राज्य परमानन्दमय चिद्रूप है। बस ग्रहण करना योग्य है इस एक अनुपम भाव को।। इसलिए हे मित्र सुन मेरे वचन के सार को। इसमें रमो अति उग्र हो आनन्द अपरम्पार हो॥१३३|| बुद्धिमान व्यक्तियों के द्वारा; मुक्तिरूपी साम्राज्य का मूल कारण, निरुपम, सहज परमानन्दवाले एक चैतन्यरूप भगवान आत्मा को; भली प्रकार ग्रहण किया जाना चाहिए। इसलिए हे मित्र ! मेरे वचनों के सार को सुनकर तू भी अति शीघ्र उग्ररूप से इस चैतन्य चमत्कार में अपनी बुद्धि को लगा।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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