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________________ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार २३१ पंचविधसंसारप्रवृद्धिकारणं विभावपुद्गलद्रव्यसंयोगसंजातं रागादिपरभावं नैव गृह्णाति, निश्चयेन निजनिरावरणपरमबोधेन निरंजनसहजज्ञानसहजदृष्टिसहजशीलादिस्वभावधर्माणामाधाराधेयविकल्पनिर्मुक्तमपि सदामुक्तं सहजमुक्तिभामिनीसंभोगसंभवपरतानिलयं कारणपरमात्मानं जानाति, तथाविधसहजावलोकेन पश्यति च, सच कारणसमयसारोहमिति भावना सदा कर्तव्या सम्यग्ज्ञानिभिरिति । तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः ह्न (अनुष्टुभ् ) यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति। जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।४९।।' निजपरमभाव को कभी नहीं छोड़ता; पाँच प्रकार के संसार की वृद्धि के कारणभूत, विभावरूप पुद्गलद्रव्य के संयोग से उत्पन्न रागादिरूप परभावों को ग्रहण नहीं करता और निश्चय से स्वयं के निरावरण परमबोध से निरंजन सहजज्ञान, सहजदृष्टि, सहजचारित्र स्वभाव धर्मों के आधार-आधेय संबंधी विकल्पों से रहित, सदा मुक्त तथा सहज मुक्तिरूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न होनेवाले सौख्य के स्थानभूत कारणपरमात्मा को निज निरावरण परमज्ञान द्वारा जानता है और उसीप्रकार के सहज अवलोकन द्वारा देखता है; वह कारणसमयसार मैं हूँ ह ऐसी भावना सम्यग्ज्ञानियों को सदा करना चाहिए।" इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि यह भगवान आत्मा अपने स्वभावभाव को कभी छोड़ता नहीं है और रागादिभावों सहित सम्पूर्ण परभावों का कभी ग्रहण नहीं करता; क्योंकि इसमें एक त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति है, जिसके कारण यह पर के ग्रहण-त्याग से पूर्णत: शून्य है। यह तो सभी स्व-पर पदार्थों को मात्र जानता-देखता है, उनमें कुछ करता नहीं है। ऐसा यह भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। ज्ञानी जीव सदा ऐसा चिन्तवन करते हैं ।।९७।। - इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव तथा चोक्तं श्री पूज्यपादस्वामिभिःह्न तथा पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) जो गृहीत को छोड़े नहीं पर न ग्रहे अग्राह्य को। जाने सभी को मैं वही है स्वानुभूति गम्य जो ||४९|| जो अग्राह्य को ग्रहण नहीं करता, गृहीत को अर्थात् शाश्वत शुद्ध स्वभाव को छोड़ता नहीं है और सभी को सभी प्रकार से जानता है; वह स्वसंवेद्य तत्त्व मैं स्वयं ही हूँ। इस छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जो रागादि विकारी भाव अग्राह्य १. पूज्यपाद : समाधितंत्र, श्लोक २०
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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