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________________ २३० नियमसार णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइ। जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी ।।९७।। निजभावं नापि मुंचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि। जानाति पश्यति सर्वं सोहमिति चिंतयेद् ज्ञानी ।।९७।। अत्र परमभावनाभिमुखस्य ज्ञानिन: शिक्षणमुक्तम् । यस्तु कारणपरमात्मा सकलदुरितवीरवैरिसेनाविजयवैजयन्तीलुंटाकं त्रिकालनिरावरणनिरंजननिजपरमभावं क्वचिदपिनापि मुंचति, शेष नहीं रहता। अतः एक आत्मा को ही सुनो, देखो, जानो; अन्यत्र भटकने की क्या आवश्यकता है ?।।४८।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (अडिल्ल) मुनिराजों के हृदयकमल का हंस जो। निर्मल जिसकी दृष्टि ज्ञान की मूर्ति जो।। सहज परम चैतन्य शक्तिमय जानिये। सुखमय परमातमा सदा जयवंत है।।१२८|| सभी मुनिराजों के हृदयकमल का हंस, केवलज्ञान की मूर्ति, सम्पूर्ण निर्मलदृष्टि से संपन्न, शाश्वत आनन्दरूप, सहजपरमचैतन्यशक्तिमय यह शाश्वत परमात्मा जयवंत वर्त रहा है। इस छन्द में अत्यन्त भक्तिभाव से शाश्वत परमात्मा की स्तुति की गई है। उन्हें मुनिराजों के हृदयकमल का हंस बताया गया है, केवलज्ञान की मूर्ति कहा गया है, निर्मलदृष्टि से सम्पन्न, शाश्वत आनन्दमय और चैतन्य की शक्तिमय कहा गया है।।१२८।। अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि ज्ञानी जीव सदा किसप्रकार का चिन्तवन करते रहते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न। (हरिगीत ) ज्ञानी विचारें देखे-जाने जो सभी को मैं वही। जो ना ग्रहे परभाव को निज भाव को छोड़े नहीं।।९७|| ज्ञानी इसप्रकार चिन्तवन करता है कि यह भगवान आत्मा अर्थात् मैं निजभाव को छोड़ता नहीं और किसी भी परभाव को ग्रहण नहीं करता; मात्र सबको जानता-देखता हूँ। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ परमभावना के सम्मुख ज्ञानी को शिक्षा दी गई है। जो कारणपरमात्मा; समस्त पापरूपी बहादुर शत्रुसेना की विजयपताका को लूटनेवाले, त्रिकाल निरावरण, निरंजन,
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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