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________________ २१८ नियमसार स्वरूपं भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुम्भस्वरूपं भवति । तथा चोक्तं समयसारे ह्न पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य। जिंदा गरहा सोही अट्टविहो होदि विसकुंभो ।।४४।। तथा चोक्तं समयसारव्याख्यायाम् ह्न (वसंततिलका) यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुत: स्यात् । तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽध: किंनोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ।।४५ ।। व्यवहारध्यानमय होने से विषकुंभ स्वरूप है।" इस गाथा और उसकी टीका में मुख्यरूप से यही कहा गया है कि मरणकाल उपस्थित होने पर आचार्यों की अनुमतिपूर्वक जो सल्लेखना ली जाती है, जिसमें आहारादि के क्रमश: त्यागादिरूप शुभक्रिया और तत्संबंधी शुभभाव होते हैं, वह व्यवहारप्रतिक्रमण है और सभी प्रकार के विकल्पों से अतीत होकर निज भगवान आत्मा का ध्यान करना निश्चयप्रतिक्रमण है। इनमें से व्यवहारप्रतिक्रमण शुभभाव और शुभक्रियारूप होने से पुण्यबध का कारण है और निश्चयप्रतिक्रमण शुद्धभावरूप होने से बंध के अभाव का कारण है। बंध का कारण होने से व्यवहारप्रतिक्रमण विषकुंभ है और बंध के अभाव का कारण होने से निश्चयप्रतिक्रमण अमृतकुंभ है ।।९२।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा चोक्तं समयसारे ह्न तथा समयसार में भी कहा है' ह्न लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा। निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं।।४४|| प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा और शुद्धि ह्न ये आठ प्रकार के विषकुंभ हैं; क्योंकि इनमें कर्तृत्वबुद्धि संभवित है। प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण के विषकुंभ और अमृतकुंभ के संदर्भ में विशेष जानकारी के १. समयसार, गाथा ३०६ २.समयसार : आत्मख्याति, छन्द १८९
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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