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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार २१७ उत्तमअटुं आदा तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्मं । तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं ।।१२।। उत्तमार्थ आत्मा तस्मिन् स्थिता घ्नन्ति मुनिवरा: कर्म। तस्मात्तु ध्यानमेव हि उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणम् ।।१२।। अत्र निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् । इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्त्वारिंशद्भिराचार्यैर्दत्तोमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण । निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा; तस्मिन् सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरवः, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति। __तस्मादध्यात्मभाषयोक्तभेदकरणध्यानध्येयविकल्पविरहितनिरवशेषेणान्तर्मुखाकारसकलेन्द्रियागोचरनिश्चयपरमशक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम् । किंच. निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशक्लध्यानमयत्वादमतकुम्भ अब इस गाथा में कहते हैं कि आत्मध्यान ही प्रतिक्रमण है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत ) उत्तम पदारथ आतमा में लीन मनिवर कर्म को। घातते हैं इसलिए निज ध्यान ही है प्रतिक्रमण ||९२|| आत्मा उत्तम पदार्थ है। उत्तम पदार्थरूप आत्मा में स्थित मुनिराज कर्मों का नाश करते हैं। इसलिए आत्मध्यान ही उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न “यहाँ निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण का स्वरूप कहा गया है। जिनेश्वर के मार्ग में मुनियों की सल्लेखना के समय ब्यालीस आचार्यों के द्वारा उत्तमार्थ प्रतिक्रमण नामक प्रतिक्रमण दिये जाने के कारण होनेवाला देहत्याग व्यवहार से धर्म है। निश्चयनय से नौ पदार्थों में उत्तम पदार्थ आत्मा है। सच्चिदानन्दमय कारणसमयसारस्वरूप आत्मा में जो तपोधन स्थित रहते हैं, वे सदा मरणभीरु होते हैं; इसीलिए वे कर्मों का नाश करते हैं। इसलिए अध्यात्मभाषा में भेदसंबंधी और ध्यान-ध्येयसंबंधी विकल्पों से रहित, सम्पूर्णत: अन्तर्मुख, सभी इन्द्रियों से अगोचर निश्चय परमशुक्लध्यान ही निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है ह्न ऐसा जानना चाहिए। दूसरी बात यह है कि निश्चय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण; स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चय शुक्लध्यानमय होने से अमृतकुंभस्वरूप है और व्यवहार उत्तमार्थ प्रतिक्रमण
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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