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________________ २०४ नियमसार तथा चोक्तं प्रवचनसारव्याख्यायाम् ह्न (शार्दूलविक्रीडित् ) इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्वह्नीः पृथग्भूमिकाः। आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यति: सर्वत श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ।।४१।।' तथा हि ह्न (मालिनी) विषयसुखविरक्ताः शुद्धतत्त्वानुरक्ता: तपसि निरतचित्ता शास्त्रसंघातमत्ताः। गुणमणिगणयुक्ता: सर्वसंकल्पमुक्ताः कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते ।।११५।। (मनहरण कवित्त) उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा। भिन्न-भिन्न भमिका में व्याप्त जो चरित्र है। पुराणपुरुषों के द्वारा सादर है सेवित जो। उसे प्राप्त कर संत हुए जो पवित्र हैं। चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप। जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में ।। क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके। सभी ओर से सदा वास करो निज में||४१|| हे मुनिवरो ! इसप्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा पृथक्-पृथक् अनेक भूमिकाओं में व्याप्त चारित्र को प्राप्त करके, क्रमश: अतुलनिवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और चैतन्यविशेषरूप से प्रकाशित निजद्रव्य में चारों ओर से स्थिति करो। ___इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की मैत्रीवाले इस मुक्तिमार्ग को पुराणपुरुषों ने विशेष आदरपूर्वक अपनाकर मुक्ति प्राप्त की है; इसलिए हे मुनिजनो! तुम भी उन्हीं के समान जगत से पूर्ण निवृत्ति लेकर सामान्य-विशेषात्मक निजद्रव्य में स्थिति करो, लीन हो जाओ। एकमात्र इसमें ही सार है, शेष सब असार संसार है।।४१|| १. प्रवचनसार : तत्त्वप्रदीपिका टीका, छन्द १५
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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