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________________ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार दैनं दैनं मुमुक्षुजनसंस्तूयमानवाङ्मयप्रतिक्रमणनामधेयसमस्तपापक्षयहेतुभूतसूत्रसमुदयनिरासोयम् । यो हि परमतपश्चरणकारणसहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथस्य राकानिशीथिनीनाथः अप्रशस्तवचनरचनापरिमुक्तोऽपि प्रतिक्रमणसूत्रविषमवचनरचनां मुक्त्वा संसारलतामूलकंदानां निखिलमोहरागद्वेषभावानां निवारणं कृत्वाऽखण्डानंदमयं निजकारणपरमात्मानं ध्यायति, तस्य खलु परमतत्त्वश्रद्धानावबोधानुष्ठानाभिमुखस्य सकलवाग्विषयव्यापारविरहितनिश्चयप्रतिक्रमणं भवतीति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्र ( हरिगीत ) वचन रचना छोड़कर रागादि का कर परिहरण । ध्याते सदा जो आतमा होता उन्हीं को प्रतिक्रमण ॥८३॥ १९५ वचन रचना को छोड़कर, रागादिभावों का निवारण करके जो आत्मा का ध्यान करता है, उसे प्रतिक्रमण होता है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “मुमुक्षुजनों द्वारा प्रतिदिन बोले जानेवाला समस्त पापक्षय का हेतुभूत जो वचनात्मक प्रतिक्रमण है; यहाँ उसका निराकरण करते हैं । परमतप का कारणभूत जो सहज वैराग्य है, उस वैराग्यरूप अमृत के समुद्र में ज्वार लाने के लिए, उछालने के लिए पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान जो जीव हैं; उनके अप्रशस्त वचन रचना से मुक्त होने पर भी जब वे प्रतिक्रमण सूत्र की विषम (विविध) वचन रचना को छोड़कर, संसाररूपी बेल की जड़ जो मोह-राग-द्वेष हैं, उनका भी निवारण करके अखण्डानन्दमय निज कारण परमात्मा को ध्याते हैं; तब परमतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान के सन्मुख उन जीवों को वचन संबंधी सम्पूर्ण व्यापार रहित निश्चय प्रतिक्रमण होता है।" अशुभ वार्तालाप से विरक्त होकर जिनागम उल्लिखित प्रतिक्रमण पाठ को बोलकर जो प्रतिक्रमण मुनिराजों द्वारा किया जाता है; उसे व्यवहार प्रतिक्रमण कहते हैं । उसमें भूतकाल में हुए दोषों का उल्लेख करते हुए प्रायश्चित्त पूर्वक उनका परिमार्जन किया जाता है । यह व्यवहार प्रतिक्रमण शुभभाव रूप होता है, शुभ वचनात्मक होता है। इसमें अशुभभाव और अशुभवचनों की निवृत्ति तो होती है; शुभभाव और शुभवचन से निवृत्ति नहीं होती; किन्तु परमार्थ प्रतिक्रमण में, निश्चय प्रतिक्रमण में शुभवचन और शुभभावों से भी निवृत्ति हो जाती है । यह परमार्थ प्रतिक्रमण अखण्डानन्दमय निजकारणपरमात्मा के ध्यानरूप होता है। ध्यान रहे इस अधिकार का नाम ही परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार है। यही कारण है कि यहाँ परमार्थ प्रतिक्रमण पर विशेष जोर दिया जा रहा है ||८३ ||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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