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________________ १९४ तथा हि ( मालिनी ) इति सति मुनिनाथस्योच्चकैर्भेद स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्तमोह: । शमजलनिधिपूरक्षालितांह: कलंक: स खलु समयसारस्यास्य भेदः क एषः । । ११० ।। मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ।। ८३ ।। मुक्त्वा वचनरचनां रागादिभाववारणं कृत्वा । आत्मानं यो ध्यायति तस्य तु भवतीति प्रतिक्रमणम् ।। ८३ ।। नियमसार भेदविज्ञान की महिमा इससे अधिक और क्या बताई जा सकती है कि आजतक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं, वे सब भेदविज्ञान से गये हैं और जो जीव कर्मों से बँधे हैं, संसार में अनादि से अनन्त दुःख उठा रहे हैं; वे सब भेदविज्ञान के अभाव से ही उठा रहे हैं ।। ३७।। इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छंद स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र (रोला ) इसप्रकार की थिति में मुनिवर भेदज्ञान से | पापपंक को धोकर समतारूपी जल से ॥ ज्ञानरूप होने से आतम मोहमुक्त I शोभित होता समयसार की कैसी महिमा ||११० || ऐसा होने पर जब मुनिराज को अत्यन्त भेदविज्ञान परिणाम होता है, तब यह समयसाररूप भगवान आत्मा स्वयं उपयोगरूप होने से मोह से मुक्त होता हुआ उपशमरूपी जलनिधि के ज्वार से पापरूपी कलंक को धोकर शोभायमान होता है। यह समयसार का कैसा भेद (रहस्य) है ? इस कलश में यही कहा गया है कि प्रतिक्रमणादि में संलग्न भावलिंगी संतों का आत्मा स्वयं उपयोगस्वरूप होने से भेदज्ञान के बल से मोहमुक्त होता हुआ 'उपशमरूपी सागर के ज्वार से पुण्य-पापरूप कर्मकलंक धोकर अत्यन्त पवित्र भाव से शोभित होता है । यह समयसाररूप भगवान आत्मा का अद्भुत माहात्म्य है ।। ११० ।। अब जिस गाथा में निश्चय प्रतिक्रमण का स्वरूप स्पष्ट करते हैं; उस गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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