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________________ नियमसार (मंदाक्रांता) मोक्षोपायो भवति यमिनांशुद्धरत्नत्रयात्मा। ह्यात्मा ज्ञानं न पुनरपरं दृष्टिरन्याऽपि नैव ।। शीलं तावन्न भवति परं मोक्षुभिः प्रोक्तमेतद् । बुद्ध्वा जन्तुर्न पुनरुदरं याति मातुःस भव्यः ।।११।। अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । ववगय असेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो ।।५।। आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद्भवति सम्यक्त्वम् । व्यपगताशेषदोष: सकलगुणात्मा भवेदाप्तः ।।५।। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) रत्नत्रय की परिणति से परिणमित आतमा। श्रमणजनों के लिए सहज यह मोक्षमार्ग है। दर्शन-ज्ञान-चरित आतम से भिन्न नहीं हैं। जो जाने वह भव्य न जावे जननि उदर में||११|| शुद्धरत्नत्रय परिणति से परिणमित आत्मा महामुनियों के लिए मोक्ष का उपाय है; क्योंकि आत्मा से न तो ज्ञान अन्य है, न दर्शन अन्य है और न चारित्र ही अन्य है। यह बात मोक्ष को प्राप्त करनेवाले अरहंत भगवन्तों ने कही है। इसको जानकर जो जीव पुनः माता के उदर में नहीं जाता, वह भव्य है। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि अभेदरत्नत्रयरूप परिणमित आत्मा मोक्ष का उपाय है। जो जीव अरहंत भगवान द्वारा कही गई इस बात का विश्वास करता है और तदनुरूप परिणमित होता है, उसे बार-बार माता के उदर में नहीं जाना पड़ेगा, वह दो-चार भव में मोक्ष में चला जायेगा। तात्पर्य यह है कि ऐसे जीव निकटभव्य होते हैं ।।११।। निश्चयरत्नत्रय का निरूपण करने के उपरान्त अब इस गाथा में व्यवहार सम्यग्दर्शन की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू (हरिगीत ) इन आप्त-आगम-तत्त्व का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। सम्पूर्ण दोषों से रहित अर सकल गुणमय आप्त है।।५।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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