SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७४ ट्ठट्ठकम्मबंधा अट्टमहागुणसमण्णिया परमा । लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति । । ७२ ।। नष्टानष्टकर्मबन्धा अष्टमहागुणसमन्विताः परमाः । लोकाग्रस्थिता नित्या: सिद्धास्ते ईदृशा भवन्ति ।। ७२ ।। नियमसार कामदेवरूपी पर्वत को तोड़ देने के लिए जो वज्रधर इन्द्र के समान हैं, जिनका काय प्रदेश (शरीर) मनोहर है, मुनिवर जिनके चरणों में नमते हैं, यमराज के पाश का जिन्होंने नाश किया है, दुष्ट पापरूपी वन को जलाने के लिए जो अग्नि है, सभी दिशाओं में जिनकी कीर्ति व्याप्त हो गई है और जगत के जो अधीश हैं; वे सुन्दर पद्मप्रभेश जिनदेव जयवंत हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि उक्त पाँचों छन्दों में मुख्यरूप से अरहंत परमेष्ठी के ही गीत गाये हैं; अरहंत परमेष्ठी के बहाने आत्मा के ही गीत गाये हैं। टीकाकार मुनिराज एक आध्यात्मिक संत होने के साथ-साथ एक सहृदय कवि भी हैं। यही कारण है कि वे प्रत्येक गाथा की टीका गद्य में लिखने के उपरान्त न केवल अन्य आचार्यों से संबंधित उद्धरण प्रस्तुत करते हैं; अपितु कम से कम एक या एक से अधिक छन्द स्वयं भी लिखते हैं। उनके उक्त छन्दों में संबंधित विषयवस्तु का स्पष्टीकरण कम और भक्ति रस अधिक मुखरित होता है; साथ में काव्यगत सौन्दर्य भी दृष्टिगोचर होता है । उपमा और रूपक अलंकारों की तो झड़ी लग रही है। बीच में तीन छन्दों में तो पद्मप्रभ भगवान का कहीं नाम भी नहीं है; पर अन्त के छन्द में पद्मप्रभेश: पद प्राप्त होता है । इसीप्रकार आदि के पद में सुसीमा सुपुत्र पद प्राप्त होता है । इसप्रकार उक्त पाँच छन्दों में आदि के छन्द में सुसीमा सुपुत्रः और अन्त के छन्द में पद्मप्रभेश: ह्न इन दो पदों से ही यह पता चलता है कि यह पद्मप्रभ जिनेन्द्र की स्तुति है । उक्त छन्दों में समागत उल्लेखों के आधार पर ही यह समझ लिया गया है कि पाँचों छन्दों में पद्मप्रभ जिनेन्द्र की ही स्तुति की गई है। जो भी हो, पर भक्ति के इन छन्दों में भक्ति के साथ-साथ अध्यात्म का पुट भी रहता ही है ॥१००॥ विगत गाथा में अरहंत परमेष्ठी का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप पर विचार करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र (हरिगीत ) नष्ट की अष्टविध विधि स्वयं में एकाग्र हो । अष्ट गुण से सहित सिध थित हुए हैं लोकाग्र में ॥ ७२ ॥ अष्टकर्मों के बंध को नष्ट करनेवाले, आठ महागुणों से सम्पन्न, परम, लोकाग्र में स्थित और नित्य ह्न ऐसे सिद्धपरमेष्ठी होते हैं।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy