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________________ १६८ नियमसार कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती। हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति त्ति णिहिट्ठा ।।७०।। कायक्रियानिवृत्ति: कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः। हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिरिति निर्दिष्टा ।।७।। निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वाय: क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्ति: कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति । पंचस्थावराणांत्रसानां च हिंसानिवृत्ति: कायगुप्तिर्वा । इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) अप्रशस्त और प्रशस्त सब मनवचन के समुदाय को। तज आत्मनिष्ठा में चतुर पापाटवी दाहक मुनी ।। चिन्मात्र चिन्तामणि शुद्धाशुद्ध विरहित प्राप्त कर अनंतदर्शनज्ञानसुखमय मुक्ति की प्राप्ति करें।।९४|| पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान योगी तिलक मुनिराज प्रशस्त और अप्रशस्त मन व वाणी के समुदाय को छोड़कर आत्मनिष्ठा में परायण, शुद्धनय और अशुद्धनय से रहित निर्दोष चैतन्यचिन्तामणि को प्राप्त करके अनन्तचतुष्टयात्मक जीवनमुक्ति को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि निश्चय मनोगुप्ति और निश्चय वचनगुप्ति के धनी मुनिराज अनन्तचतुष्टय से संयुक्त मुक्ति को प्राप्त करते हैं ।।९४।। विगत गाथा में निश्चय मनोगुप्ति और निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप समझाया है; अब इस गाथा में निश्चय कायगुप्ति की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत ) दैहिक क्रिया की निवृत्ति तनगुप्ति कायोत्सर्ग है। या निवृत्ति हिंसादि की ही कायगुप्ति जानना ||७०|| दैहिक क्रियाओं की निवृत्तिरूप कायोत्सर्ग ही काय संबंधी गुप्ति है अथवा हिंसादि की निवृत्ति को शरीरगुप्ति कहा है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह निश्चय कायगुप्ति के स्वरूप का कथन है। सभी लोगों को शरीर संबंधी बहुत सी क्रियायें होती हैं। उनकी निवृत्ति ही कायोत्सर्ग है और वही कायगुप्ति है अथवा पाँच स्थावर जीवों और त्रस जीवों की हिंसा से निवृत्ति ही कायगुप्ति है । जो परम संयम को धारण
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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