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________________ व्यवहारचारित्राधिकार १६७ जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती। अलियादि णियत्तिं वा मोणं वा होइ वइगुत्ती ।।६९।। या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहि तां मनोगुप्तिम्।। अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्तिः ।।६९।। निश्चयनयेन मनोवाग्गुप्तिसूचनेयम् । सकलमोहरागद्वेषाभावादखंडाद्वैतपरमचिद्रूपे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्तिः। हे शिष्य त्वं तावदचलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि । निखिलानृतभाषापरिहतिर्वा मौनव्रतं च । मूर्तद्रव्यस्य चेतनाभावाद् अमूर्तद्रव्यस्येंद्रियज्ञानागोचरत्वादुभयत्र वाक्प्रवृत्तिर्न भवति । इति निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् । (शार्दूलविक्रीडित) शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापरः शुद्धाशुद्धनयातिरिक्तमनघं चिन्मानचिन्तामणिम् । प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया सार्धं स्थितां सर्वदा जीवन्मुक्तिमुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः ।।१४।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) मनोगुप्ति हृदय से रागादि का मिटना अहा। वचनगुप्ति मौन अथवा असत्न कहना कहा ||६९|| मन में से जो रागादि से निवृत्ति होती है, उसे मनोगुप्ति जानो और असत्यादिक वचन से निवृत्ति अथवा मौन वचनगुप्ति है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह निश्चयनय से मनोगुप्ति और वचनगुप्ति की सूचना है । सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण, अखण्ड अद्वैत परमचिद्रूप में सम्यक् रूप से अवस्थित रहना ही निश्चय मनोगुप्ति है। हे शिष्य तू उसे अचलित मनोगुप्ति जान । समस्त असत्य भाषा का परिहार अथवा मौनव्रत ही वचनगुप्ति है। मूर्त द्रव्यों में चेतना का अभाव होने से अमूर्तद्रव्यों का इन्द्रियज्ञान के अगोचर होने से मूर्त और अमूर्त ह्न दोनों प्रकार के द्रव्यों के प्रति वचन-प्रवृत्ति नहीं होती। इसप्रकार निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप कहा गया।" इस गाथा में निश्चय मनोगुप्ति और निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। अखण्ड अद्वैत त्रिकालीध्रुव आत्मा का ध्यान ही निश्चय मनोगुप्ति है और मौन अथवा असत्य भाषण के सम्पूर्णत: त्यागपूर्वक आत्मध्यान की अवस्था ही निश्चय वचनगुप्ति है।।६९||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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