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________________ व्यवहारचारित्राधिकार १५९ पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स ।।६५।। प्रासुकभूमिप्रदेशे गूढे रहिते परोपरोधेन। उच्चारादित्याग: प्रतिष्ठासमितिर्भवेत्तस्य ।।६५।। मुनीनां कायमलादित्यागस्थानशुद्धिकथनमिदम् । शुद्धनिश्चयतो जीवस्य देहाभावान्न चान्नग्रहणपरिणतिः । व्यवहारतो देहः विद्यते, तस्यैव हि देहे सति ह्याहारग्रहणं भवति, आहारग्रहणान्मलमूत्रादयः संभवन्त्येव । अत एव संयमिनां मलमूत्रविसर्गस्थानं निर्जन्तुकं परेषामुपरोधेन विरहितम् । तत्र स्थाने शरीरधर्मं कृत्वा पश्चात्तस्मात्स्थानादुत्तरेण कतिचित् पदानि गत्वा [दङ्मुखः स्थित्वा चोत्सृज्य कायकर्माणि संसारकारणं परिणामं मनश्च संसृतेनिमित्तं, स्वात्मानमव्यग्रो भूत्वा ध्यायति यः परमसंयमी मुहुर्मुहः कलेवरस्याप्यशुचित्वं वा परिभावयति, विगत गाथा में आदाननिक्षेपणसमिति का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और अब इस गाथा में प्रतिष्ठापनसमिति का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) प्रतिष्ठापन समिति में उस भमि परमल मत्र का। क्षेपण करेंजो गूढ प्रासुक और हो अवरोध बिन ||६५|| परोपरोध से रहित, गूढ, प्रासुक भूमिप्रदेश में इसप्रकार मल-मूत्र का त्याग करना कि उससे किसी जीव का घात न हो, प्रतिष्ठापनासमिति है। । दूसरे के द्वारा रोके जाने को परोपरोध कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मुनिराज ऐसे स्थान पर मल-मूत्र का क्षेपण करें कि जहाँ कोई रोक-टोक नहीं हो, थोड़ी-बहुत आड़ हो और उक्त भूमि पर जीव-जन्तु भी न हों। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह मुनियों के काय के मलादिक के त्याग के स्थान की शुद्धि का कथन है। शुद्धनिश्चयनय से तो जीव के देह का अभाव होने से अन्नग्रहणरूप परिणति ही नहीं है; परन्तु व्यवहारनय से जीव के शरीर होता है; इसलिए देह होने से आहार ग्रहण भी होता ही है। आहार ग्रहण के कारण मल-मूत्रादिक भी होते ही हैं। इसलिए संयमियों के मल मूत्रादिक त्याग का स्थान जन्तुरहित और पर के उपरोध से रहित होता है। उक्त स्थान पर शरीरधर्म करके पश्चात् परमसंयमी उस स्थान से उत्तर दिशा की ओर कुछ डग जाकर उत्तरमुख खड़े रहकर शरीर की क्रियाओं का और संसार के कारणभूत परिणामों और मन का उत्सर्ग करके निजात्मा को अव्यग्र होकर ध्याता है अथवा पुनः पुनः शरीर की अशुचिता
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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