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________________ व्यवहारचारित्राधिकार १५३ तथा चह्न (अनुष्टुभ् ) परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां मनीषिणाम् । अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिर्जील्पैश्च किं पुनः ।।८५।। कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च । दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ।।६३।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज ‘तथा गुणभद्रस्वामी ने भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (वीर) जान लिये हैं सभी तत्त्व अर दर सर्व सावधों से। अपने हित में चित्त लगाकर सब प्रकार से शान्त हुए। जिनकी वाणी स्वपर हितकरी संकल्पों से मुक्त हुए। मुक्ति भाजन क्यों न हो जब सब प्रकार से मुक्त हुए।।२९|| जिन्होंने वस्तुस्वरूप को जान लिया है, जो सभी प्रकार के सावध (पापकर्म) से दूर हैं, जिन्होंने अपने चित्त को स्वहित में स्थापित किया है, जिनके प्रचारित होने से विकल्प शान्त हो गये हैं, जिनका बोलना स्व-परहित से सफल है और सभी प्रकार के संकल्पों से विशद्ध हैं; ऐसे विमुक्त पुरुष इस लोक में मुक्ति के भाजन क्यों नहीं होंगे? गुणभद्राचार्य के आत्मानुशासन के इस छन्द में भाषासमिति के संबंध में कुछ विशेष नहीं कहा गया है; अपितु सामान्यरूप से मुक्ति प्राप्त करने के अधिकारी मुनिवरों का स्वरूप ही स्पष्ट किया गया है। कहा गया है कि वस्तुस्वरूप के जानकार, पापकर्मों से अत्यन्त दूर, अपने में ही मगन, शान्तचित्त, हित-मित-प्रिय वचनों से अलंकृत, भव-भोगों से विरक्त मुनिराज अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करने के अधिकारी हैं ।।२९।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न (दोहा) आत्मनिरत मुनिवरों के अन्तर्जल्प विरक्ति। तब फिर क्यों होगी अरे बहिर्जल्प अनुरक्ति।।८५|| परब्रह्म के अनुष्ठान में निरत मनीषियों के जब अन्तर्जल्प से भी विरक्ति है तो फिर बहिर्जल्प की तो बात ही क्या करें; उनसे तो विरक्ति नियम से होगी ही। उक्त छन्द में भी यही कहा गया है कि आत्मज्ञानी-ध्यानी मुनिराज अन्तर्बाह्य विकल्पों से पार पहुँच गये होते हैं ।।८५।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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