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________________ १५२ नियमसार एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य वा महद्विपत्कारणं वचः पैशून्यम् । क्वचित् कदाचित् किंचित् परजनविकाररूपमवलोक्य त्वाकर्ण्य च हास्याभिधाननोकषायसमुपजनितम् ईषच्छुभमिश्रितमप्यशुभकर्मकारणं पुरुषमुखविकारगतं हास्यकर्म। कर्णशष्कुलीविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः । परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा। स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा। एतत्सर्वमप्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति। तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः ह्र (मालिनी) समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूरा: स्वहितनिहितचित्ताः शांतसर्वप्रचाराः। स्वपरसफलजल्पा: सर्वसंकल्पमुक्ताः कथमिह न विमुक्तेर्भाजनं ते विमुक्ताः ।।२९।। और राजा के कान तक पहुँचे हुए; किसी एक पुरुष, एक कुटुम्ब या किसी एक गाँव को महाविपत्ति के कारणभूत वचनों को पैशून्य (चुगली) कहते हैं। कहीं, कभी, किंचित् परजनों के विकृतरूप को देखकर अथवा सुनकर हास्य नामक नोकषाय से उत्पन्न होनेवाला, किंचित् शुभ के साथ मिश्रित होने पर भी अशुभ कर्म का कारण, पुरुष के मुख से विकार के साथ संबंधवाला हास्य कर्म है। ____ कान के छेद के पास पहुँचने मात्र से जो दूसरों को अप्रीति उत्पन्न करते हैं, ऐसे वचन कर्कश वचन हैं। दूसरों में विद्यमान-अविद्यमान दोषों को कहनेवाले वचन परनिन्दा है और अपने विद्यमान-अविद्यमान गुणों की स्तुति आत्मप्रशंसा है। इन सब अप्रशस्त वचनों के त्यागपूर्वक स्व और पर को शुभ व शुद्ध परिणति के कारणभूत वचन भाषा समिति हैं।" यद्यपि चुगली, हास्य, कर्कश, निन्दा, प्रशंसा ह ये शब्द सामान्यजनों के लिए अत्यन्त सुपरिचित शब्द हैं; तथापि यहाँ टीका में उन्हें भी परिभाषित किया गया है। उक्त सभी प्रकार के स्व-पर अहितकारी अप्रशस्त वचनों के त्यागपूर्वक स्व-पर हितकारी प्रिय परिमित वचनों का उपयोग और तत्संबंधी भाव भाषासमिति हैं।।६२।। १. आत्मानुशासन, छन्द २२६
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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