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________________ १५० ( मालिनी ) नियतमिह जनानां जन्म जन्मार्णवेऽस्मिन् समितिविरहितानां कामरोगातुराणाम् । मुनिप कुरु ततस्त्वं त्वन्मनोगेहमध्ये ह्यपवरकममुष्याश्चारुयोषित्सुमुक्तेः ।।८३।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) जयवंत है यह समिति जो त्रस और थावर घात से । संसारदावानल भयंकर क्लेश से अतिदूर है । मुनिजनों के शील की है मूल धोती पाप को । यह मेघमाला सींचती जो पुण्यरूप अनाज को ॥८२॥ जो समिति मुनिराजों के शील का मूल है, जो त्रस और स्थावर जीवों के घात से पूर्णत: दूर है, जो भवदावानल के परिणामरूपी क्लेश को शान्त करनेवाली है और समस्त पुण्यरूपी अनाज के ढेर को पोषण देकर संतोष देनेवाली मेघमाला है ह्रऐसी यह समिति जयवंत वर्तती है। उक्त छन्द में त्रस और स्थावर जीवों के घात से अतिदूर समिति को मुनिराजों के शील का मूल कहा गया है। साथ में भवदावानल के ताप को दूर करनेवाली और पुण्य को प्राप्त करनेवाली बताया गया है ।।८२ ।। तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र नियमसार ( हरिगीत ) समिति विरहित काम रोगी जनों का दुर्भाग्य यह । संसार - सागर में निरंतर जन्मते मरते रहें । हे मुनिजनो ! तुम हृदयघर में सावधानी पूर्वक । जगह समुचित सदा रखना मुक्ति कन्या के लिए ॥ ८३ ॥ इस विश्व में यह सुनिश्चित ही है कि इस भवसागर में समिति से रहित, इच्छारूपी रोग से पीड़ित जनों का जन्म होता है। इसलिए हे मुनिराजो ! तुम अपने मनरूपी घरों में इस मुक्तिरूपी स्त्री के लिए आवास की व्यवस्था रखना, इसका सदा ध्यान रखना । उक्त छन्द में टीकाकार मुनिराज मुनिराजों को सावधान कर रहे हैं कि समितियों की उपेक्षा करनेवाले संसार - सागर में गोते लगाते रहते हैं; मुक्ति की प्राप्ति तो निश्चयसमितियों के पालकों को ही होती है ॥८३॥
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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