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________________ व्यवहारचारित्राधिकार १४९ (मंदाक्रांता) इत्थं बुद्ध्वा परमसमितिं मुक्तिकान्तासखीं यो। मुक्त्वा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च । स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे भेदाभावे समयति च सः सर्वदा मुक्त एव ।।८१।। (मालिनी) जयति समितिरेषा शीलमूलं मुनीनां सहतिपरिदूरा स्थावराणां हतेर्वा । भवदवपरितापक्लेशजीमूतमाला सकलसुकृतसीत्यानीकसन्तोषदायी ॥८२।। देवदर्शन, गुरुदर्शन, तीर्थदर्शन आदि के शुभ विकल्पपूर्वक त्रस-स्थावर जीवों की रक्षा के भाव से चार हाथ आगे तक जमीन को देखकर दिन में विहार करना व्यवहार ईर्यासमिति है। अध्यात्मरस के रसिया टीकाकार मुनिराज टीका के अन्त में यह कहना नहीं भूले कि दोनों प्रकार की समितियों को भलीभांति जानकर परमनिश्चय समिति को प्राप्त करो। तात्पर्य यह है कि व्यवहार समिति तो पुण्यबंध का कारण है; किन्तु निश्चयसमिति बंध के अभाव का कारण है, मुक्ति का कारण है। अत: परम उपादेय तो वही है॥६१|| इस गाथा की टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव चार छन्द लिखते हैं, जिनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत) मक्तिकान्ता की सखी जो समिति उसको जानकर। जो संत कंचन-कामिनी के संग को परित्याग कर|| चैतन्य में ही रमण करते नित्य निर्मल भाव से। विलग जग से निजविहारी मुक्त ही हैं संत वे||८१|| इसप्रकार मुक्तिकान्ता की सखी परमसमिति को जानकर जो जीव भवभय करनेवाले कंचन-कामिनी के संग को छोड़कर, सहजविलासरूप अपूर्व अभेद चैतन्यचमत्कारमात्र में स्थित रहकर उसमें सम्यक् गति करते हैं अर्थात् सम्यकप से परिणमित होते हैं; वे सर्वदा मुक्त ही हैं। इसप्रकार इस छन्द में यही कहा गया है कि समिति मुक्तिरूपी पत्नी की सखी (सहेली) है और कंचन-कामिनी के त्यागी निश्चय-व्यवहार समिति के धारक मुनिराज एक अपेक्षा से मुक्त ही हैं।।८१||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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