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________________ शुद्धभाव अधिकार तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ ह्र तथा च ह्न (अनुष्टुभ् ) दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते । स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योग: शिवाश्रयः ।। २६ ।। ( मालिनी ) जयति सहजबोधस्तादृशी दृष्टिरेषा चरणमपि विशुद्धं तद्विधं चैव नित्यम् । अघकुलमलपंकानीकनिर्मुक्तमूर्तिः सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च ।। ७५ ।। होगा; पर वक्ता तो हमारी पात्रता के अनुसार हमें समझाता है। वह अकेली वाणी से ही सब कुछ नहीं कहता, अपने हाव-भावों से भी बहुत कुछ स्पष्ट करता है। यही अंतर स्पष्ट करने के लिए यहाँ उक्त अन्तर रखा गया है ।।५१-५५॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ' तथा एकत्व सप्तति में भी कहा है ' ह्न ऐसा कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (दोहा) आत्मबोध ही बोध है, निश्चय दर्शन जान | आत्मस्थिति चारित्र है युति शिवमग पहचान ||२६|| १३७ आत्मा का निश्चय सम्यग्दर्शन है, आत्मा का बोध सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में लीनता सम्यक्चारित्र है ह्र ऐसा योग अर्थात् तीनों की एकरूपता मुक्ति का मार्ग है । इस छन्द में निश्चय मोक्षमार्ग अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र और इन तीनों की एकतारूप निश्चय मोक्षमार्ग को संक्षेप में अत्यन्त सरल शब्दों में स्पष्ट कर दिया गया है ।। २६ ।। इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव भी एक छंद स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत ) जयवंत है सद्द्बोध अर सहष्टि भी जयवंत है । अर चरण भी सुविशुद्ध जो वह भी सदा जयवंत है । अर पापपंकविहीन सहजानन्द आतमतत्त्व में । ही जो रहे, वह चेतना भी तो सदा जयवंत है ॥७५॥ १. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, एकत्वसप्तति अधिकार, श्लोक १४
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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