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________________ १३६ नियमसार सकाशादिति । अभेदानुपचाररत्नत्रयपरिणतेजीवस्य टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजपरमतत्त्वश्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांतर्मुखपरमबोधेन, तद्रूपाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रेण अभूतपूर्व: सिद्धपर्यायो भवति । य: परमजिनयोगीश्वरः प्रथमं पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य खलु व्यवहारनयगोचरतपश्चरणं भवति । सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः । स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति। उन भेद अनुपचार रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को; टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप निजपरमतत्त्व के श्रद्धान से, उस परमतत्त्व के ज्ञानरूप अन्तर्मुख परमबोध से और उस परमतत्त्व में अविचल स्थितिरूप सहज चारित्र से अभूतपूर्व सिद्धपर्याय होती है। जो परम जिनयोगीश्वर पहले पापक्रिया से निवृत्तिरूप व्यवहारनय से चारित्र में स्थित होते हैं; उन्हें व्यवहारनयगोचर तपश्चरण होता है। सहज निश्चयनयात्मक परमस्वभावरूप परमात्मा में प्रतपन तप है। उस परमयोगीश्वर को निजस्वरूप में अविचलस्थितिरूपइस सहजतप से निश्चयचारित्र होता है।" इन गाथाओं और उनकी टीका में भेदरत्नत्रय (व्यवहारत्नत्रय) और अभेदरत्नत्रय (निश्चयरत्नत्रय) का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँसम्यग्दर्शन के बाह्य सहकारी कारण (निमित्त) के रूप में वीतराग-सर्वज्ञ के मुखकमल से निकला हुआ, समस्त वस्तुओं के प्रतिपादन में समर्थ द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान को स्वीकार किया गया है और दर्शनमोहनीय के क्षयादिक के कारण ज्ञानी धर्मात्माओं को पदार्थ निर्णय में हेतुपने के कारण अंतरंगहेतु (निमित्त) उपचार से कहा गया है। यद्यपि अन्य शास्त्रों में दर्शनमोहनीय के क्षयादिक को सम्यग्दर्शन का अंतरंग हेतु (निमित्त) और देव-शास्त्र-गुरु व उनके उपदेश को बहिरंग हेतु (निमित्त) के रूप में स्वीकार किया गया है; तथापि यहाँ ज्ञानी धर्मात्माओं को अंतरंग हेतु बताया जा रहा है। प्रश्न ह्रदर्शनमोहनीय के क्षयादिक का उल्लेख तो यहाँ भी है। उत्तरह हाँ; है तो, पर यहाँ पर तो जिसका उपदेश निमित्त है, उस ज्ञानी के दर्शनमोहनीय के क्षयादिक की बात है और अन्य शास्त्रों में जिसे सम्यग्दर्शन हुआ है या होना है, उसमें दर्शनमोह के क्षयादिक की बात है। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ ज्ञानी धर्मात्माओं को उपचार से अंतरंग हेतु (निमित्त) कहा है। यद्यपि उपचार शब्द के प्रयोग से बात स्वयं कमजोर पड़ जाती है; तथापि जिनगुरु और जिनागम की निमित्तता के अंतर को स्पष्ट करने के लिए ज्ञानी धर्मात्माओं को अंतरंग निमित्त कहा गया है। जिनवाणी और ज्ञानी धर्मात्माओं में यह अंतर है कि जिनवाणी को तो मात्र पढ़ा ही जा सकता है; पर ज्ञानी धर्मात्माओं से पूछा भी जा सकता है, उनसे चर्चा भी की जा सकती है। जिनवाणी में तो जो भी लिखा है, हमें उससे ही संतोष करना
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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